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राग, द्वेष, भय से रहित है ब्राह्मण
न शुद्ध हो पाया हो— कसेंगे कहां ?
इस संबंध में एक बात समझ लेनी बहुत आवश्यक है। महावीर, बुद्ध, मुहम्मद या क्राईस्ट या कोई भी कुछ समय के लिए समाज से हट जाते हैं । वह समाज से हटने का वह समय आग को जलाने का समय है। लेकिन फिर समाज में लौट आते हैं। वह लौटना कसौटी का समय है । कसौटी कहां है ?
मैं एकांत में जाकर बैठ जाऊं और मुझे क्रोध न उठे, क्योंकि वहां कोई गाली देनेवाला नहीं है। वर्षों बैठा रहूं, क्रोध न उठे, तो मुझे वहम भी पैदा हो सकता है कि अब मैं क्रोध का विजेता हो गया । कसौटी कहां है ? मुझे लौटकर आना पड़ेगा। मुझे भीड़ में खड़ा होना पड़ेगा। मुझे लोगों से संबंधित होना पड़ेगा । कोई मुझे गाली दे, कोई मुझे नुकसान पहुंचाये, और तब मेरे भीतर क्रोध की झलक भी न आये, तब अग्नि की एक लपट भी न उठे, मेरे भीतर कुछ भी जले नहीं, तो कसौटी होगी ।
समाज कसौटी है । उचित है, जरूरी है कि साधक कुछ समय के लिए समाज से हट जाये। लेकिन सदा एकांत में रहना खतरनाक है। आग से तो आप गुजरे, लेकिन कसौटी कहां है ? इसलिए जो साधक वन में ही रह जाते हैं सदा के लिए, अधूरे रह जाते हैं। जंगल की तरफ जाना जरूरी है। आग से पक जाने और गुजर जाने के बाद वापिस लौट आना भी उतना ही जरूरी है क्योंकि यहीं कसौटियां हैं। यहां चारों तरफ कसौटियां घूम रही हैं, वे आपको ठीक से कसौटी करवा देंगीं। यहां धन है, यहां वासना है, यहां काम के सब उपकरण हैं, यहां आपको पता चलेगा।
अभी एक कैंप था माउण्ट आबू में। एक जैन मुनि बड़ी हिम्मत करके... बड़ी हिम्मत...! क्योंकि उन्होंने कहा कि मैं देखने आना चाहता हूं कि वहां ध्यान लोग कैसा कर रहे है? मैंने उनसे कहा कि देखने से क्या दिखायी पड़ेगा, आप करें ही । तो उन्होंने कहा कि वह तो जरा मुश्किल जायेगा - डर क्या है ? तो वह कहने लगे कि वहां तो अभिव्यक्ति होती है, किसी के भीतर कुछ भी हो वह बाहर निकालना है। तो मैंने कहा, 'भीतर कुछ है तो निकलेगा, नहीं है, तो नहीं निकलेगा। डर क्या है ? है तो निकालकर जान लेना जरूरी है; कसौटी हो जायेगी कि भीतर पड़ा है। नहीं है, तो भी आनंद का अनुभव होगा कि भीतर कुछ भी नहीं पड़ा है।' पर उन्होंने कहा कि नहीं, आप तो इतनी ही आज्ञा दें कि मैं बैठकर देख सकूं। आपकी मर्जी - लेकिन जो कर नहीं सकता, मैंने कहा, वह ठीक से देख भी नहीं पायेगा ।
और यही हुआ। जब लोगों ने ध्यान करना शुरू किया तो वह कोई दो मिनट तक तो देखते रहे, फिर सामने ही एक युवती ने अपना वस्त्र अलग कर दिया। मुनि ने तत्काल आंखें बंद कर लीं। फिर वह देख नहीं सके !... नग्न स्त्री !
स्त्री को देखने की ही घबराहट है, तो नग्न स्त्री को देखने में तो बहुत घबराहट हो जायेगी। लेकिन घबराहट बाहर है या भीतर ? भीतर कोई कंपित हो गया । भीतर कोई वासना उठ गयी, भीतर कोई परेशानी खड़ी हो गयी। आंख उस स्त्री से थोड़े ही बंद की जा रही है। आंख बंद करके वह जो भीतर उठ रहा है, उसे दबाया जा रहा है। यह जो दबाया जा रहा है इससे कभी मुक्ति न हो पायेगी । यह दबा हुआ सदा पीछा करेगा, जन्मों-जन्मों तक सतायेगा। मैंने उन्हें कहा कि आप सोचते थे, देख पायेंगे, लेकिन देख नहीं पाये । क्योंकि जो डर करने में था, वही डर देखने में भी है।
वासना भीतर खड़ी है। एकांत में इसका निरीक्षण, इसका साक्षी भाव उचित है। और अच्छा है कि प्रारंभ में साधक एकांत में चला जाये, ताकि और चीजों के उपद्रव न रह जायें। एक ही बात रह जाये जीवन में साधना की। लेकिन वन अंत नहीं है, लौट तो समाज में आना पड़ेगा।
द्वेष तथा
तो महावीर कहते हैं कि जो अग्नि में डाले हुए शुद्ध किये हुए और कसौटी पर कसे हुए निर्मल सोने की तरह है; जो राग,
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