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महावीर वाणी भाग 2
और ध्यान रहे, मनोरंजन की प्रतिष्ठा तभी बढ़ती है, जब लोग बहुत दुखी होते हैं, क्योंकि दुखी आदमी ही मनोरंजन खोजता है । सुखी आदमी मनोरंजन नहीं खोजेगा। अगर आप प्रसन्नचित्त हैं, आनंदित हैं, तो आप फिल्म में जाकर नहीं बैठेंगे, क्योंकि तीन घंटा व्यर्थ की मूढ़ता हो जायेगी । समय खराब होगा; मस्तिष्क खराब होगा; तीन घंटे में आंखें खराब होंगी; स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचेगा, और मिलेगा कुछ भी नहीं ।
लेकिन दुखी आदमी भागता है, दुखी आदमी मनोरंजन खोजता है। तो जितना मनोरंजन की तलाश बढ़ती है, उससे पता चलता है कि आदमी ज्यादा दुखी होता जा रहा है। सुखी आदमी एक झाड़ के नीचे बैठकर भी आनंदित है; अपने घर में भी बैठकर आनंदित है; अपने बच्चों के साथ खेलकर भी आनंदित अपनी पत्नी के पास चुपचाप बैठकर भी आनंदित है । कहीं जाने की कोई जरूरत नहीं है।
कहीं जाने का मतलब यह है कि जहां आप हैं, वहां दुख है - वहां से बचना चाहते हैं।
अभिनेता असत्य है, लेकिन उसकी कीमत बढ़ती जाती है। नेता मनुष्य में निम्नतम का प्रतीक है। राजनीति मनुष्य के भीतर जो निम्नतम वृत्तियां हैं, उनका खेल है; लेकिन वह आदृत है। झूठ हमारा आदर्श होता चला जा रहा है।
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सुना है मैंने, एक स्त्री एक पुल के पास से गुजरती थी। पुल के किनारे पर उसने एक अंधे आदमी को बैठे देखा, तख्ती लगाये हुए है, जिस पर उसने लिखा है, 'प्लीज हेल्प दि ब्लाइंड — कृपया अंधे की मदद करें।' उसकी दशा इतनी दुखद है कि उस स्त्री ने पांच रुपये का एक नोट निकालकर उसके हाथ में दिया। उस अंधे ने कहा, 'नोट बदल दें तो अच्छा है। थोड़ा पुराना, फटा-सा मालूम पड़ता है; पता नहीं, चले, न चले।' उस स्त्री ने कहा, 'अंधे होकर तुम्हें पता कैसे चला कि नोट पुराना, गंदा-सा मालूम होता है?' उस आदमी ने कहा, ‘क्षमा करें, अंधा मैं नहीं हूं, मेरा मित्र अंधा है। वह आज सिनेमा देखने चला गया है; मैं उसकी जगह काम कर रहा हूं—सिर्फ प्रतिनिधि हूं | और जहां तक मेरी बात है, मैं गूंगा-बहरा हूं ।'
'अंधा फिल्म देखने चला गया है; मैं गूंगा-बहरा हूं'; वह कह रहा है ! मगर करीब-करीब ऐसी ही असत्य हो गयी है जीवन की सारी व्यवस्था । तख्तियों से कुछ पता नहीं चलता है कि पीछे कौन है ? नामों से कुछ पता नहीं चलता है कि पीछे कौन है ? प्रचार से कुछ पता नहीं चलता कि पीछे कौन है? एक झूठा चेहरा है सबके ऊपर, भीतर कोई और है; भीतर कुछ और चल रहा है। अभिनय की पूजा पाखंड का सबूत है । पद की, प्रतिष्ठा की पूजा आपके भीतर एक रोग की खबर देती है कि आप पागल हैं, आप चाहते हैं कि आप विशिष्ट हो जायें । आप चाहते हैं, सबकी छाती पर चढ़ जायें, सबसे ऊपर हो जायें । चढ़ने की सीढ़ियां कोई भी हो सकती हैं — धन, पद, ज्ञान, त्याग भी। अगर चढ़ने की ही सीढ़ी बनानी हो तो कोई भी चीज सीढ़ी बन सकती है।
महावीर किसे पूज्य कहते हैं ? महावीर जैसे आदमी जिसे पूज्य कहते हैं, उस पर विचार कर लेना जरूरी है।
'जो आचार-प्राप्ति के लिए विनय का प्रयोग करता है ।'
बड़ी कठिन शर्त है । आप भी आचारवान होना चाहते हैं, लेकिन महावीर विनय की शर्त लगा रहे हैं, जो कि बड़ी उल्टी है। हम बचपन से ही बच्चों को सिखाते हैं कि तुम्हारा चरित्र ऊंचा रखना, क्योंकि चारित्र्य का सम्मान है। अगर तुम चरित्रवान हो तो सभी तुम्हें आदर देंगे। अगर तुम चरित्रवान हो तो कोई तुम्हारी निंदा नहीं करेगा। अगर तुम चरित्रवान हो तो समाज की श्रद्धा तुम्हारी तरफ होगी, तुम पूज्य बन जाओगे ।
हम बच्चे को अहंकार सिखा रहे हैं, आचरण नहीं । हम बच्चे को यह कह रहे हैं कि अगर तुझे अपने अहंकार को सिद्ध करना है, तो आचरण जरूरी है। क्योंकि जो आचारहीन है उसको कोई श्रद्धा नहीं देता; कोई आदर नहीं देता; लोग उसकी निंदा करते हैं। ऊपर से दिखायी पड़ता है कि मां-बाप आचरण सिखा रहे हैं, पर मां-बाप अहंकार सिखा रहे हैं। मां-बाप यह नहीं कह रहे हैं कि तू विनम्र होना,
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