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ब्राह्मण-सूत्र : 1
जो न सज्जइ आगन्तुं, पव्वयन्तो न सोयई । रमइ अज्जवयणम्मि, तं वयं बूम माहणं ॥ जायरुवं जहामट्ठे, निद्धन्तमल- पावगं । राग-दोस-भयाईयं, तं वयं बूम माहणं ।। तवस्सियं किसं दन्तं, अवचियमंससोणियं । सुव्वयं पत्तनिव्वाणं, तं वयं बूम माहणं ।।
जो आनेवाले स्नेहीजनों में आसक्ति नहीं रखता, जो उनसे दूर जाता हुआ शोक नहीं करता, जो आर्य वचनों में सदा आनन्द पाता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं ।
जो अग्नि में डालकर शुद्ध किये हुए और कसौटी पर कसे हुए सोने के समान निर्मल है, जो राग, द्वेष तथा भय से रहित है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।
जो तपस्वी है, जो दुबला-पतला है, जो इंद्रिय-निग्रही है, उग्र तपसाधना के कारण जिसका रक्त और मांस भी सूख गया है, जो शुद्धवती है, जिसने निर्वाण पा लिया है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं ।
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