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महावीर-वाणी भाग : 2
चेष्टा चलती रहती है कि मैं दूसरे से ऊपर, यही हिंसा है। ___ तो चींटी से बचकर चलने में बहुत कठिनाई नहीं है। अगर जो चींटी से बचकर नहीं चलता, उसको मैं देखता हूं कि वह कीड़ा-मकोड़ा है, तो कोई कठिनाई नहीं है, चींटी से बचकर चलने में अगर यही मजा है कि जो बचकर नहीं चलते, उनको मैं पापी की तरह देख सकता हूं, तो चींटी से बचा जा सकता है। लेकिन यह हिंसा और गहरी हो गयी। चींटी का मर जाना, उसको बेहोशी से दबा देना, हिंसा थी, अप्रमाद था । यह अप्रमाद और गहरा हो गया। इसने रास्ता बदल दिया, रुख बदल दिया । बीमारी दूसरी तरफ चली गयी, लेकिन मौजूद है, और गहरी हो गयी।
चाहे तो कोई बाहर के आचरण को ठोंक-पीटकर ठीक कर ले, और भीतर बेहोश बना रहे । चाहे तो कोई भीतर बेहोशी न टूटे, और बाहर के आचरण में जैसा है वैसा ही चलता रहे, जरा भी न बदले, धोखा दे सकता है। __ महावीर जैसे व्यक्ति अखण्ड व्यक्ति को स्वीकार करते हैं। वे कहते हैं, पूरा व्यक्ति ही बदलना है। बाहर और भीतर दो टुकडे नहीं हैं। एक धारा के अंग हैं। कहीं से भी शुरू करो, दूसरा भी अंतर्निविष्ट है, दूसरा भी अंतर्निहित है।
अब सूत्र। 'रस वाले पदार्थों का अधिक मात्रा में सेवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि वे मादकता पैदा करते हैं और मत्त पुरुष अथवा स्त्री के पास वासनाएं वैसी ही दौड़ी आती हैं, जैसे स्वादिष्ट फलवाले वृक्ष की ओर पक्षी।'
अप्रमाद की बात कही, वह भीतर की बात थी। तत्काल रस की बात कही, वह बाहर की बात है। कहा कि भीतर जागते रहो, होश सम्भाले रखो, और फिर तत्काल यह कहा कि बाहर से भी वही लो अपने भीतर जो बेहोशी न बढ़ाता हो । नहीं तो एक आदमी ध्यान करता रहे और शराब पीता रहे. तो यह ऐसे हआ कि एक कदम आगे गये और एक कदम पीछे आये। फिर जिन्दगी के आखिर में पाये कि वहीं खड़े हैं। खड़े नहीं, गिर पड़े हैं, वहीं जहां पैदा हुए थे। तो इसमें हैरानी न होगी, लेकिन हम सब यही कर रहे हैं। एक कदम जाते हैं, तत्काल एक कदम उल्टा वापस लौट आते हैं। तो इससे बेहतर है, जाओ ही मत । शक्ति और श्रम नष्ट मत करो। __अगर भीतर अप्रमाद की साधना चल रही है, भीतर ध्यान की साधना चल रही है, तो महावीर कहते हैं, फिर ऐसे पदार्थ मत लो जो बेहोशी बढ़ाते हैं। और पदार्थ ऐसे हैं जो बेहोशी बढ़ाते हैं। मादक हैं। ऐसे पदार्थ हैं जो हमारे भीतर के प्रमाद को सहारा देते हैं।
इसलिए आप देखें-एक आदमी शराब पी लेता है, तत्काल दूसरा आदमी हो जाता है, इसलिए तो शराबी को भी शराब का रस है, कि एक ही आदमी रहते-रहते ऊब जाता है, अपने से ऊब जाता है। जब शराब पी लेता है तो जरा मजा आता है। नयी जिन्दगी हो जाती है, नया आदमी हो जाता है, यह नया आदमी कौन है?
।, यह नया आदमी भीतर छिपा था। शराब इसको सिर्फ सहारा दे सकती है। शराब आपके भीतर कुछ पैदा नहीं करती। जो छिपा है, उसको उकसा सकती है। जगा सकती है। इसलिए बहुत मजे की घटनाएं घटती हैं। ___एक अदामी शराब पीकर उदास हो जाता है। एक आदमी शराब पीकर प्रसन्न हो जाता है, एक आदमी गाली-गलौज बकने लगता है, एक आदमी बिलकुल मौन ही हो जाता है । मौन साध लेता है। एक आदमी नाचने कूदने लगता है और एक आदमी बिलकुल शिथिल होकर मुर्दा हो जाता है, सोने की तैयारी करने लगता है। शराब एक, फर्क इतने! शराब कुछ भी नहीं करती । जो आदमी के भीतर पड़ा है, उसको भर उत्तेजित करती है।
तो अकसर उल्टा हो जाता है । जो आदमी आमतौर से हंसता रहता है वह शराब पीकर उदास हो जाता है, क्योंकि हंसी झूठी थी, ऊपर-ऊपर थी, उदासी भीतर थी, असली थी। शराब ने झूठ को हटा दिया। शराब सत्य की बड़ी खोजी है। शराब ने असत्य को हटा
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