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लोकतत्व-सूत्र : 2
नाणं च दंसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा। वीरियं उवओगो य, एयं जीवस्स लक्खणं ।। सदंऽधयार उज्जोओ, पहा छायाऽऽतवे इ वा । वण्ण-रस-गंध-फासा, पुग्गलाण तु लक्खणं ।। जीवाऽजीवा य बन्धो य पुण्णं पावाऽऽसवा तहा। संवरो निज्जरा मोक्खो, सन्तेए तहिया नव ।।
तहियाणं तु भावाणं, सव्भावे उवस्सणं। भावेणं सद्दहन्तस्स, सम्मत्तं तं वियाहियं ।।
ज्ञान, दर्शन, चारित्र्य, तप, वीर्य और उपयोग अर्थात अनुभव-ये सब जीव के लक्षण हैं। शब्द, अंधकार, प्रकाश, प्रभा, छाया, आतप (धूप), वर्ण, रस, गंध और स्पर्श-ये सब पुदगल के लक्षण हैं। जीव, अजीव, बंध, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा और मोक्ष—ये नौ सत्यतत्व हैं। जीवादिक सत्य पदार्थों के अस्तित्व में सदगुरु के उपदेश से, अथवा स्वयं ही अपने भाव से श्रद्धान करना, सम्यक्त्व कहा गया है।
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