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छह लेश्याएं : चेतना में उठी लहरें
हैं, क्योंकि उनमें इतना जोश-खरोश होता है कि वे फेनेटिक हो जाते हैं; वे अपने को ठीक मानते हैं, सबको गलत मानते हैं । और सबको ठीक करने की चेष्टा में लग जाते हैं... दयावश! लेकिन वह दया भी कठोर हो सकती है। __ जैसे ही ध्यान पैदा होता है, प्रेम शांत होता है। क्योंकि प्रेम में दूसरे पर नजर होती है, ध्यान में अपने पर नजर आ जाती है। पीत
लेश्या-पदम लेश्या ध्यानी की अवस्था है। बारह वर्ष तक महावीर उसी अवस्था में थे। और पीला भी जब और बिखरता जाता है, विलीन होता जाता है तो शुभ्र का जन्म होता है । जैसे सांझ जब सूरज डूब जाता है-रात नहीं आई और सूरज डूब गया, और संध्या फैल जाती है-शुभ्र, कोई उत्तेजना नहीं, वह समाधि की अवस्था है। उस क्षण में सभी लेश्याएं शांत हो गयीं, सभी लेश्याएं सफे बन गईं-शुभ्र बच रहा है। वह अंतिम अवस्था है चित्त की तरफ से।
ये छह चित्त की लेश्याएं हैं। 'शुभ्र' चित्त की आखिरी अवस्था है। झीने से झीना पर्दा बचा है, वह भी खो जायेगा। तो सातवीं को महावीर ने नहीं गिनाया; क्योंकि सातवीं फिर चित्त की अवस्था नहीं, आत्मा का स्वभाव है। वहां सफेद भी नहीं बचता । उतनी उत्तेजना भी नहीं रह जाती, सब रंग खो जाते हैं।
मृत्यु में जैसे खोते हैं, वैसे नहीं, जैसा काले में खोते हैं, वैसे नहीं—मुक्ति में जैसे खोते हैं। काले में तो सारे रंग इसलिए खो जाते हैं कि काला सभी रंगों को हजम कर जाता है, पी जाता है, भोग लेता है । मुक्ति में सभी रंग इसलिए खो जाते हैं कि किसी रंग पर पकड़ नहीं रह जाती; जीवन की कोई वासना, जीवन की कोई आकांक्षा, जीवेषणा नहीं रह जाती-सभी रंग खो जाते हैं। इसलिए सफेद के बाद जो अंतिम छलांग है, वह भी रंग-विहीन है।
और ध्यान रहे, मृत्यु और मोक्ष बड़े एक-जैसे हैं और बड़े विपरीत भी; दोनों में इसलिये रंग खो जाते हैं । एक में रंग खो जाते हैं कि जीवन खो जाता है, दूसरे में इसलिए रंग खो जाते हैं कि जीवन पूर्ण हो जाता है, और अब रंगों की कोई इच्छा नहीं रह जाती। __ मोक्ष मृत्यु-जैसा है, इसलिए मुक्त होने से हम डरते हैं । जो जीवन को पकड़ता है, वही मुक्त हो सकता है। जो जीवन को पकड़ता है, वह बंधन में बना रहता है। ‘जीवेषणा', जिसको बुद्ध ने कहा है, लस्ट फार लाइफ, वही इन रंगों का फैलाव है । और अगर जीवेषणा बहुत ज्यादा हो तो दूसरे की मृत्यु बन जाती है—वह कृष्ण-लेश्या है । अगर जीवेषणा तरल होती जाये, कम होती जाये, फीकी होती जाये, तो दूसरे का जीवन बन जाती है—वह प्रेम है।
ये महावीर ने छह लेश्याएं कही हैं। अभी पश्चिम में इस पर खोज चलती है तो अनुभव में आता है कि ये छह रंग करीब-करीब वैज्ञानिक सिद्ध होंगे। और मनष्य के चित्त को नापने की इससे कशल कंजी दसरी नहीं हो सकती. क्योंकि यह बाहर से नापा जा सकता है, भीतर जाने की कोई जरूरत नहीं। जैसे एक्सरे लेकर कहा जा सकता है, कि भीतर कौन-सी बीमारी है वैसे आपके चेहरे का ऑरा पकड़ा जाए तो उस आरे से पता चल सकता है कि चित्त किस तहर से रुग्ण है, कहां अटका है। और तब मार्ग खोजे जा सकते हैं कि क्या किया जाये कि चित्त इस लेश्या से ऊपर उठे। ___ अंतिम घड़ी में लक्ष्य तो वही है, जहां कोई लेश्या न रह जाये । लेश्या का अर्थ : जो बांधती है, जिससे हम बंधन में होते हैं, जो रस्सी की तरह हमें चारों तरफ से घेरे रहती है । जब सारी लेश्याएं गिर जाती हैं तो जीवन की परम ऊर्जा मुक्त हो जाती है। उस मुक्ति के क्षण को हिंदुओं ने 'ब्रह्म' कहा है-बुद्ध ने 'निर्वाण' कहा है-महावीर ने कैवल्य' कहा है। 'कृष्ण, नील, कापोत-ये तीन अधर्म-लेश्याएं हैं। इन तीनों से युक्त जीव दुर्गति में उत्पन्न होता है।'
'तेज, पदम और शक्ल-ये तीन धर्म-लेश्याएं हैं। इन तीनों से युक्त जीव सदगति में उत्पन्न होता है। ध्यान रहे. शभ्रलेश्या के पैदा हो जाने पर भी जन्म होगा। अच्छी गति होगी, सदगति होगी, साधु का जीवन होगा। लेकिन जन्म होगा क्योंकि लेश्या अभी भी बाकी
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