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पांच समितियां और तीन गुप्तियां
उपयोग करते हैं। आप भी थोड़े कवि हैं, आप उसमें कुछ जोड़ते हैं; उसको सजाते हैं; संवारते हैं। सुबह की अफवाह शाम अगर उसी आदमी के पास वापस लौट आए, जिसने शुरू की थी, तो वह पहचान नहीं सकेगा कि यह बात मैंने ही कही थी। इतने लोगों के हाथ से निखर जायेगी। सुबह पांच रुपये की चोरी हुई हो तो सांझ तक पांच लाख की हो जाना कुछ अड़चन की बात नहीं है।
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मन में कुछ आया कि आप जल्दी उसे देना चाहते हैं; क्यों? क्योंकि फिर आप हल्के हो जाएंगे; जब तक नहीं देते, तब तक मन पर बोझ बना रहता है । इसलिए किसी बात को गुप्त रखना बड़ा कठिन है । और जो लोग किसी बात को गुप्त रख सकते हैं, बड़ी गहरी क्षमता है उनकी । और जब आप शब्द तक को गुप्त नहीं रख सकते, तो और क्या गुप्त रखेंगे। इसलिए गुरुमंत्र का नियम है : मंत्र में कुछ भी न हो, लेकिन उसे गुप्त रखना है। गुप्त रखने में ही सारी साधना है, मंत्र उतना मूल्यवान नहीं है। क्योंकि कहने का मन इतना नैसर्गिक है, इतना स्वाभाविक है कि किसी चीज को रोकना बिलकुल अस्वाभाविक मालूम होता है। आप किसी न किसी भांति किसी न किसी से कह देना चाहते हैं ।
मुल्ला नसरुद्दीन के पास कोई आया, और आकर उसने कहा, 'मैंने सुना है कि तुम्हें जीवन के रहस्य की कुंजी मिल गई है, वह कुंजी तुम मुझे दे दो ।' नसरुद्दीन ने कहा कि 'वह बड़ी गुप्त बात है, बड़ा सीक्रेट है।' उस आदमी ने कहा कि 'मैं भी उसे गुप्त रखने की कोशिश करूंगा।' नसरुद्दीन ने कहा कि 'तू पक्की कसम खा कि उसे गुप्त रखेगा।' उस आदमी ने कसम खाई; उसने कहा, 'मैं गुप्त रखूंगा,' नसरुद्दीन ने कसम सुनने के बाद कहा, 'अब जा ।' पर उसने कहा, 'अभी आपने मुझे वह कुंजी बताई नहीं ।' नसरुद्दीन ने कहा कि 'जब तू गुप्त रख सकता है तो मैं गुप्त नहीं रख सकता ? और जब मैं ही न रख सकूंगा तो तेरा क्या भरोसा ?'
कठिन है, अति अप्राकृतिक है कि कोई बात आपके मन में चली जाये और आप उसे न कहें। एक ही उपाय है कि वह बात शब्द न रह जाये, खून बन जाये, हड्डी हो जाये, पच जाये, मांस-मज्जा हो जाये, तो ही गुप्त रह सकती है। इसलिए गुप्त रखने की एक कला है । उस कला के माध्यम से जो शब्द आपके भीतर जाते हैं, उनको आप बाहर नहीं फेंकते, ताकि वे पच जायें – वे समय लेंगे। आप बाहर फेंक देते हैं, इसलिए मैंने कहा - वमन, उल्टी, कय हो गई। जो आपने खाया था, वह वापस मुंह से फेंक दिया गया। वह पच नहीं पाया। मौन पचायेगा — और तभी बोलेगा, जब इतनी शांति गहन हो जायेगी भीतर कि अब कोई अशांति नहीं है, जिसे किसी पर फेंकना है; अब किसी को शिकार नहीं बनाना है।
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मौन व्यक्ति ही सहयोगी हो सकता है, मार्ग-निर्देशक हो सकता है। हिंदुओं ने अपने संन्यासी को 'स्वामी' कहा, इस अर्थ में कि वह अपना मालिक हो गया। बुद्ध ने अपने संन्यासी को 'भिक्षु' कहा, इस अर्थ में कि इस दुनिया में सभी अपने को मालिक समझ रहे हैं— और गलत । कोई अपने को भिक्षु नहीं समझता, कोई अपने को अंतिम नहीं समझता । मेरा संन्यासी अपने को अंतिम समझेगा, भिखारी समझेगा, ताकि महत्वाकांक्षा की दौड़ से टूट जाए।
महावीर ने अपने साधु को 'मुनि' कहा। इस कारण से मुनि कहा कि महावीर का मौन पर सर्वाधिक जोर है। और महावीर कहते हैं, जो मौन को उपलब्ध नहीं हो जाता, मुनि नहीं हो जाता, उससे सत्य की कोई किरण प्रगट नहीं हो सकती ।
आठ सूत्र बड़े अनूठे हैं। इनमें एक-एक सूत्र पर हम क्रमशः विचार करें।
'पांच समिति और तीन गुप्ति - इस प्रकार आठ प्रवचन-माताएं हैं।... जो आपको बोलने के योग्य बना सकेंगी। बोलते तो आप हैं, लेकिन बोलने की कोई योग्यता नहीं है। बोलना आपकी एक बीमारी है, एक रोग है । इसलिए बोलकर आप अपने को हल्का अनुभव करते हैं, बोझ उतर जाता है। दूसरे से प्रयोजन नहीं है- - अगर आपको कोई बोलने को न मिले तो आप अकेले में भी बोलेंगे। अगर आपको बंद कर दिया जाए एक कोठरी में, और कोई न मिले, तो थोड़ी ही देर में आप अकेले बोलना शुरू कर देंगे ।
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