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महावीर वाणी भाग 2
सभी शास्त्र और सभी तीर्थंकर कहते रहें, इससे क्या फर्क पड़ता है। सभी तीर्थंकर जगत के मिलकर भी आपके छोटे-से अनुभव के मुकाबले कमजोर हैं, आपका अनुभव सच है। आपको पता है कि झूठ बोलकर बचूंगा। पहले भी झूठ बोलकर बचे हैं, पहले भी सच बोलकर फंसे हैं। अनुभव आपका यही है; यही आपका ज्ञान है। आपके वास्तविक शास्त्र में लिखा है कि 'झूठ ही धर्म है', क्योंकि वही बचाव है। लेकिन आपकी अवास्तविक बुद्धि में लिखा है, 'सत्य धर्म है', वही परम श्रेय है । इन दोनों में कोई ताल-मेल नहीं है। अपने ही शास्त्र से आप चलते हैं। आपका आचरण आपके ही ज्ञान की छाया की तरह चलता है। महावीर का आचरण महावीर के ज्ञान की छाया है। महावीर का ज्ञान आप में छाया पैदा नहीं कर सकता। महावीर की छाया आपके पीछे कैसे चल सकती है ? उनके ही पीछे चलेगी।
यह ठीक से समझ लेना जरूरी है कि हम जिसे ठीक जानना कहते हैं, वह जानना ही नहीं है, ठीक तो बहुत दूर। हमारी सारी कठिनाई इस बात में है कि हमारे मस्तिष्क सुशिक्षित कर दिये गये हैं, और हमारी चेतना अशिक्षित रह गई है। तो एक अर्थ में हमें सभी कुछ मालूम है और एक अर्थ में हमें कुछ भी नहीं मालूम। इसलिए जिस व्यक्ति को मोक्ष के मार्ग पर जाना हो, पहले तो उसे अपने इस ज्ञान के झूठे खयाल से मुक्ति पानी जरूरी है। उसे एक दफा अज्ञानी हो जाना जरूरी है। उसे ठीक-ठीक साफ कर लेना चाहिये कि मेरा ज्ञान क्या कहता है, नहीं तो धोखा हो रहा
महावीर का ज्ञान आप अपना ज्ञान समझ रहे हैं तो धोखा हो रहा है— आप भटकेंगे। आपका ज्ञान क्या है ? अपने पास एक छोटा-अपना शास्त्र, निजी-शास्त्र, प्रत्येक को बनाना चाहिये। उसमें अपना ज्ञान लिखना चाहिये, शुद्ध मेरा ज्ञान यह है कि 'झूठ धर्म है । ' क्योंकि धर्म वही है जो रक्षा करे। झूठ रक्षा करता है। अपना छोटा सा शास्त्र, निजी, और तब आप पायेंगे कि आपका चरित्र हमेशा आपके शास्त्र की छाया है । तब आपको कभी कोई भूल-चूक नहीं मिलेगी। जो आपके शास्त्र में लिखा है, वही आपका जीवन होगा। लेकिन शास्त्र आपके पास महावीर का है और चरित्र अपना है। इसमें बड़ी अड़चन है। और आप बड़े धोखे में पड़े हैं। और तब प्रश्न उठता है कि जानने से क्या होगा ? जान तो लिया, लेकिन जीवन तो बदलता नहीं। तो महावीर की बात समझ में नहीं आयेगी।
अगर जानने से जीवन न बदलता हो, उसका एक ही अर्थ हुआ कि जाना नहीं है। उस जानने को छोड़ें और जानने की कोशिश में लगें । जानने की कोशिश में वही लगेगा, जिसे अज्ञान का बोध हो रहा है। आप सब ज्ञानी हैं, अज्ञान का बोध होता ही नहीं, तो जानने का कोई सवाल ही नहीं उठता। और जब तक सम्यक ज्ञान न हो, तब तक सम्यक चरित्र नहीं हो सकता है।
चरित्र एक कड़ी है, जिसके पहले कुछ अनिवार्य कड़ियां गुजर जानी चाहिये। जब तक वे अनिवार्य कड़ियां न गुजर जायें, चरित्र की कड़ी हाथ में नहीं आती। लेकिन आप झूठा कागजी चरित्र पैदा कर सकते हैं, आप आवरण बना सकते हैं, आप पाखंडी हो सकते हैं, आप चेहरे ओढ़ सकते हैं । और चेहरे कभी-कभी इतने गहरे हो जाते हैं, कि इतने पुराने हो जाते हैं कि लगता है, कि आपका यही असली चेहरा है ।
रिलके ने, एक कवि ने अपने बचपन का एक संस्मरण लिखा है। उसने लिखा है कि मैं छोटा था और मेरे पिता को बड़ी सांस्कृति गतिविधियों में बड़ी रुचि थी। नाटक, कविता, संगीत • और घर में निरंतर कलाकार ठहरते थे। एक बार एक नाटक मंडली घर में ठहरी। उन दिनों अभिनेता चेहरे ओढ़कर अभिनय करता था - नाटक में मास्क – तो उनके पास बड़े अजीब-अजीब चेहरे थे ।
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और घर में ही वह ठहरे थे। तो यह छोटा बच्चा रिलके एक दिन उनके कमरे में घुस गया, जब कि सब लोग खाना खाने में लगे थे। वह उनके सजावट के कमरे में पहुंच गया। उसने भी सोचा कि मैं भी एक चेहरा ओढ़कर देखूं । तो उसने एक भयंकर - बच्चों को रस होता है भयंकर में-- एक राक्षस का चेहरा लगा लिया, उसे ठीक से बांध लिया। उसके ऊपर एक पगड़ी बांध ली, ताकि उसकी
बड़ा
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