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मुमुक्षा के चार बीज किसी मनस्विद से पूछो, दुनियाभर के सारे मनस्विद भी इकठे हो जायें, तो मैं जो कह रहा हूं, यही गवाही देंगे कि यह आदमी रुग्ण है, बीमार है, पैथालाजिकल है। यह अपने को सता रहा है, मैसोचिस्ट है। ___ दो तरह की वृत्तियां हैं हिंसा की : दूसरे को सताने की और अपने को सताने की । अहिंसक वही है, जो किसी को भी नहीं सता रहा
सरों को, न अपने को । सताने की धारणा ही जिसकी गिर गई। लेकिन वह आपको साधु ही नहीं मालूम पड़ेगा, जो अपने को नहीं सता रहा है। क्योंकि साधु कैसा है ? यह आराम से बैठा है, अपने को भी नहीं सता रहा है। __ तपश्चर्या करो कुछ, कुछ उपवास करो, कुछ भूखे रहो, कुछ मरकर दिखाओ...तो ही साधु मालूम पड़ेगा, कि आप को लगे कि साधु आराम से शांत बैठा है, प्रसन्न है, आनंदित है-आपको शक हो जायेगा कि यह आदमी साधु नहीं है। क्योंकि हमने कठोरता और हिंसा को साधुता का अंग बना लिया है। ___ महावीर की बात बिलकुल अन्यथा है। महावीर के शरीर को देखकर कोई भी नहीं कह सकता कि पैथालाजिकल है, बीमार है। महावीर के चेहरे की प्रसन्नता को देखकर कोई नहीं कह सकता है कि इन्होंने अपने को सताया है, वह तो चेहरा मुरझा जाता है। सताये हुए का चेहरा नहीं दिखता महावीर का । उस प्रफुल्लित व्यक्ति का चेहरा दिखता है जो सताना भूल ही गया, न किसी और को, न अपने को।
गरणा और महावीर की यह प्रतिमा दनिया के सामने प्रगट नहीं हो पा रही है। कारण दिखाई पड़ता है और कारण यही है कि महावीर ने जो बातें कहीं, महावीर ने जो विचार दिया, उस विचार की बड़ी ही भ्रांत व्याख्या हो गई। होने की संभावना थी; उसमें बीज थे। महावीर नग्न खड़े हो गये। ___ तो पश्चिम में मनस्विद कहते हैं कि कुछ लोगों को नग्न खड़े होने में सुख मालूम पड़ता है, कोई उनको नंगा देख ले। ये वे ही लोग हैं जिनकी कामवासना ठीक नहीं है, विकृत हो गई है। इनको इतने में ही रस आ जाता है कि कोई इनको नग्न देख ले। तो ऐसे आदमी को महावीर में रस आ जायेगा । वह कहेगा कि यह तो बिलकुल ठीक है। धर्म की आड मिलती है और मैं नग्न खडा हो जाऊं तो लोग उल्टे पूजा करते हैं। ___ आदमी को अपने को सताने में विजय का रस मिलता है, कि मैं जीत रहा हूं, मैं मालिक हूं। आखिर दूसरे को सताने में आपको क्या रस मिलता है ? यही रस न कि वह आपसे बदला नहीं ले सकता, और आप मालिक हैं; वह कमजोर और आप ताकतवर हैं? आदमी जब अपने को सताता है, तब भी उसके अहंकार को मजा आता है कि 'मैं ताकतवर हूं । देखो, पंद्रह दिन से भूखा हूं, उपवास किया है; और सारा शरीर ताकत लगा रहा था, कि भूख लगी है, लेकिन मैंने एक न सुनी।'
यह कौन है, जो एक नहीं सुन रहा है ? यह दुष्ट अहंकार है। नहीं तो शरीर जब कह रहा है, भूख लगी है, तो चाहे दूसरे का शरीर कह रहा हो, चाहे अपना शरीर कह रहा हो, फर्क क्या है? एक दूसरा आदमी बैठा हो, उसको भूख लगेगी-आप कहते हैं, नहीं खाना खाने देंगे, और आपका शरीर कह रहा है कि भूख लगी है, और आप कहते हैं, कि नहीं खाना खाने देंगे, क्योंकि मैंने व्रत लिया है। यह व्रत कौन ले रहा है?
सब व्रत अहंकार के हिस्से हैं। क्योंकि व्रत से मजा आ रहा है कि मैं पंद्रह दिन करके दिखा दूंगा। इस शरीर को दिखा दूंगा करके। यह शरीर है कौन? यह आपका यंत्रभर है। आप वैसा ही पागलपन कर रहे हैं, जैसे कोई गाड़ी को चलाता रहे और कहे कि पेट्रोल नहीं दूंगा । चखा दूंगा मजा बिना पेट्रोल के चलाकर।
बिलकुल पागलपन की बात कर रहे हैं। गाड़ी को पेट्रोल नहीं देने से गाड़ी क्या चखेगी मजा, मजा आप ही चख रहे हैं। लेकिन कोई भी आदमी अगर गाड़ी के साथ ऐसा व्यवहार करेगा खड़े होकर तो आप कहेंगे यह पागल है। लेकिन शरीर के साथ इस तरह के व्यवहार
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