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महावीर-वाणी भाग : 2
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पता हो जाए कि तीर किस दिशा से आया? तीर निकालने के पहले मुझे यह तो पता हो जाये कि तीर विषाक्त है या नहीं?' बुद्ध 'पागल, तीर को पहले निकल जाने दे, फिर तू सब जिज्ञासाएं कर लेना। क्योंकि तेरी जिज्ञासाएं इतनी लम्बी हैं कि अगर उनको तृप्त करने की कोशिश की जाए तो हो सकता है, इसके पहले कि जिज्ञासाएं पूरी हों, तेरे जीवन का दिया बुझ जाए...!' __फिर तो बुद्ध ने इस घटना को अपना आधार बना लिया। फिर तो वे लोगों से कहते थे, ‘मत पूछो कि ईश्वर क्या है ? मत पूछो कि
आत्मा क्या है? सिर्फ इतना ही पछो कि दख से कैसे निवत्ति हो, तीर से कैसे छुटकारा हो?' जीवन बिंधा है तीरों से, जीवन जल रहा है प्रतिपल, और हम जिज्ञासाएं कर रहे हैं बचकानी ! लगती हैं बड़ी तात्विक; परमात्मा की बातें बड़ी तात्विक लगती हैं, लेकिन बुद्ध कहते हैं, जरा भी तात्विक नहीं हैं । तत्व की बात तो इतनी है कि तुम दुखी हो। तुम क्यों दुखी हो, और कैसे दुख का निवारण हो जाये, तत्व की बात तो इतनी है कि तुम कारागृह में पड़े हो । कहां है द्वार, कहां है चाबी, कि तुम कारागृह के बाहर हो जाओ। कैसे जीवन मुक्त हो सके उस उपद्रव से, जिसमें हम घिरे हैं, जिस पीड़ा और संताप में हम पड़े हैं, कैसे इस गर्त अंधेरे से जीवन प्रकाश में आ सके, वही बात तात्विक है।
तो मुमुक्षु और जिज्ञासु में एक बुनियादी फर्क है, और वह कीमती है। क्योंकि अगर जिज्ञासा के रास्ते पर कोई चलता रहे तो दर्शन में प्रवेश कर जायेगा-फिलासफी में । अगर मुमुक्षा के रास्ते पर कोई चले तो धर्म में प्रवेश करेगा, फिलासफी में नहीं। धर्म बहुत व्यावहारिक है, वास्तविक है, वैज्ञानिक है । जो वास्तविक है उसे कैसे बदला जाये? व्यर्थ की बकवास से धर्म का कोई संबंध नहीं है।
लेकिन मुमुक्षा होनी चाहिए। आपके प्रश्न बुद्धि से न उठे, जीवन के अनुभव से उठे, तो मुमुक्षा बन जाते हैं। कोई मेरे पास आता है, वह पूछता है, 'ईश्वर है या नहीं?' मैं उससे पूछता हूं कि 'तुम्हारे जीवन के किस अनुभव से प्रश्न उठ रहा है। अगर ईश्वर है तो तुम क्या करोगे, अगर नहीं है तो तुम क्या करोगे?' वह आदमी कहता है, 'मैं बस जानना चाहता हूं, है या नहीं।' ।
है, तो भी यह आदमी ऐसा ही रहेगा, जैसा है। नहीं है, तो भी यह ऐसा ही रहेगा. जैसा है।
क्या फर्क पड़ता है, एक आदमी जैन दर्शन में विश्वास करता है, एक आदमी हिंदू दर्शन में विश्वास करता है; एक आदमी इस्लाम में एक आदमी ईसाई...उनके दर्शन अलग-अलग हैं, फिलासफीज़ अलग-अलग हैं, लेकिन ये आदमी बिलकुल एक जैसे हैं। किसी को भी गाली दो, वह क्रोध करेगा, भला ईश्वर हो उसके दर्शन में या न हो, भला वह मानता हो कि आत्मा बचती है मृत्यु के बाद या न मानता
मला वह मानता हो कि पुनर्जन्म होता है या नहीं होता। गाली से परीक्षा हो जायेगी कि ये चारों आदमी एक जैसे हैं।
क्या फर्क है हिंदू, मुसलमान, ईसाई, जैन में? - फर्क बातचीत में होगा, अंतस्तल में जरा भी फर्क नहीं है। आदमी को भीतर खोदो, बिलकुल एक जैसा है। बस, ऊपर चमड़ी-चमड़ी के फर्क हैं। ___ मुमुक्षा का अर्थ है कि जो मैं जानना चाहता हूं, उससे मैं जीवन को बदलने का काम लूंगा; वह मेरे लिए एक उपकरण होगा, उससे मैं नया आदमी बनूंगा । अन्यथा ज्ञान भी मूर्छा बन जायेगा, शराब की तरह हो जायेगा । बहुत लोग ज्ञान का उपयोग शराब की तरह ही करते हैं । उसमें अपने को भुलाये रखते हैं। शराब का मतलब ही इतना है, जिसमें हम अपने को भुला सकें, और जिसमें भुलाकर अकड़ पैदा हो जाये । तो पंडितों की अकड़ आप देखते हैं ! ब्राह्मण जैसी अकड़ दुनिया में कहीं देखी नहीं जा सकती। और अकड़ इतनी स्वाभाविक हो गई है, खून में मिल गई है कि उसे पता भी नहीं चलता कि अकड़ है। जितने हम मूर्छित होते हैं, उतना अहंकार मजबूत होता है। सुना है मैंने, एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन गया शराबघर में । एक गिलास शराब उसने बुलाई, लोग चकित हुए देखकर कि वह क्या कर
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