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यह निःश्रेयस का मार्ग है
पुरुषों का नहीं है । अनेक स्त्रियों के पास पुरुष चित्त होता है। अनेक पुरुषों के पास स्त्री चित्त होता है । चित्त बड़ी और बात है। स्त्रैण चित् का अर्थ है – समर्पण का भाव, अपने को किसी की शरण में खो देने की क्षमता; अपने को मिटा देने की। इतनी ग्राहकता कि मैं न रहूं और दूसरा ही रह जाये ।
स्त्री जब प्रेम करती है तो उसका प्रेम बनता है समर्पण। प्रेम का अर्थ है - मिट जाना। वह जिसे प्रेम करती है, वही रह जाये। इतनी एक हो जाये प्रेम करनेवाले के साथ कि कोई भिन्नता न रह जाये। यह है स्त्रैण चित्त, रिसेप्टिविटी, ग्राहकता, समर्पण, सरेंडर ! पुरुष प्रेम करता है तो समर्पण नहीं है। पुरुष के प्रेम का अर्थ यह होता है कि वह समर्पण को पूरी तरह स्वीकार कर लेता है। जब प्रेमी उसे समर्पित होता है तो वह पूरी तरह स्वीकार कर लेता है। वह इतना आत्मसात कर लेता है अपने में अपनी प्रेयसी को कि प्रेयसी नहीं बचती, वही बचता है। और प्रेयसी इतनी आत्मसात हो जाती है प्रेमी में कि खुद नहीं बचती, प्रेमी ही बचता है। लेकिन पुरुष समर्पण नहीं करता है, इसलिए अगर कोई पुरुष किसी स्त्री को प्रेम करे और समर्पण कर दे उसके चरणों में, तो वह स्त्री उसे प्रेम ही न कर पायेगी । क्योंकि समर्पण करनेवाला पुरुष स्त्री जैसा मालूम पड़ेगा ।
पुरुष है शिखर जैसा, स्त्री है खाई जैसी। वे दोनों की भावदशाएं भिन्न । तो मीरा मिट जाती है और कृष्ण को अपने में समा लेती है। समर्पण उसका रास्ता है। वह कहती है, मैं नहीं हूं, तू ही है, और तेरी इच्छा के बिना कुछ भी नहीं होता । बुरा हो मुझ से, तो तेरा । भला हो मुझसे, तो तेरा । पाप हो मुझसे, तो तेरा, पुण्य हो मुझसे तो तेरा । मेरा कुछ भी नहीं है ।
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यह मत सोचना कि मीरा यह कह रही है कि भला हो तो मेरा, और बुरा हो तो तेरा । भला करूं तो मैं, और पाप और बुरा हो जाये
तो तू — विधि। न, मीरा कह रही है, तू ही है, मैं हूं ही नहीं। इसलिए कुछ भी हो, अब मेरी कोई भी जिम्मेवारी नहीं है । क्योंकि जब मैं नहीं हूं तो मेरी जिम्मेवारी का कोई सवाल ही नहीं है। तू डुबाये, तू बचाये, तू मोक्ष में ले जाये, तू नरक में डाल दे, तेरी मर्जी मेरी खुशी है। अब यह भी नहीं है कि तू मुझे मोक्ष में ले जायेगा तो ही मेरी खुशी होगी। तू ले जायेगा, यही मेरी खुशी है। कहां ले जायेगा, यह तू जान ।
इतने समग्र से अपने को छोड़ सके कोई, फिर कोई कर्म का बंधन नहीं है। क्योंकि कर्ता ही न रहा ।
ठीक से समझ लें, जब तक करनेवाले का भाव है तभी तक कर्म का बंधन है। मैं करनेवाला ही नहीं हूं, वही करनेवाला है । यह विराट जो अस्तिव है, वही कर रहा है। फिर कोई कर्म का बंधन नहीं है। कर्म बनता है कर्ता के भाव को, अहंकार को। इसलिए मीरा स्त्रैण चित्त की परिपूर्ण अभिव्यक्ति में अपने को खो देती है। मीरा ही ऐसा करती है, ऐसा नहीं। चैतन्य भी यही करते हैं। इसलिए पुरुष स्त्री का सवाल नहीं है, प्रतीक हैं।
महावीर बिलकुल भिन्न हैं। महावीर कहते हैं, समर्पण कैसा? किसके प्रति समर्पण? और महावीर कहते हैं कि समर्पण भी मैं ही करूंगा। वह भी मेरा ही कृत्य है। महावीर सोच ही नहीं सकते समर्पण की भाषा, वे पुरुष चित्त के शिखर हैं। इसलिए ईश्वर को उन्होंने इनकार ही कर दिया, क्योंकि ईश्वर होगा तो समर्पण करना ही पड़ेगा ।
कोई और नहीं है, मैं ही हूं। इसलिए सारी जिम्मेवारी का बोझ मेरे ही ऊपर है। वह मुझे ही खींचना है। मुझे ही तय करना है, ि क्या करूं और क्या न करूं। और जो भी परिणाम हो, वह मुझे जानना है कि मेरे ही द्वारा हुआ है। इसलिए 'मैं' छोड़ने का कोई उपाय नहीं है। मुझे अपने को बदलना है और शुद्धतर, और शुद्धतर, और शून्यतर; इतना शुद्ध हो जाना है, इतना ट्रांसपेरेंट, पारदर्शी हो जाना है कि कुछ बुरा मुझमें न रह जाये ।
इस शुद्ध करने की प्रक्रिया में ही 'मैं' विलीन होगा, लेकिन समर्पित नहीं होगा। इसका फर्क समझ लें 1
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