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महावीर-वाणी भाग : 2
की कंदराओं को, पहाड़ों को पार करके, पत्थरों को काटकर । वह जो मार्ग है, वह कठिन है। ___ हम कठिन हैं। हमें अपने से ही गुजरकर तो सत्य तक पहुंचना है। सत्य है सरल, हम हैं कठिन । अगर हम अपने विपरीत मार्ग चुन लें तो यात्रा है असभ्मव।
अब हम सूत्र को लें। 'जो मनुष्य सुंदर और प्रिय भोगों को पाकर भी पीठ फेर लेता है, सब प्रकार से स्वाधीन भोगों का परित्याग कर देता है, वही सच्चा त्यागी है।'
भोग का उपाय न हो, भोग को भोगने की क्षमता न हो, असहाय हो आदमी, तब भी त्याग कर सकता है। लेकिन महावीर कहते हैं, तब त्याग का कोई भी अर्थ नहीं है। जो भोग ही नहीं सकता, उसके त्याग का क्या अर्थ है? जिसके पास भोगने की सुविधा नहीं, उसके त्याग का क्या अर्थ है? उसका त्याग कोई भी अर्थ नहीं रखता। __त्याग का सभी अर्थ भोग के संदर्भ में है। इसलिए जब बूढ़ा ब्रह्मचर्य का व्रत ले लेता है तो उसका कोई भी अर्थ नहीं है। बूढ़ा अपने को धोखा दे रहा है। जवान जब ब्रह्मचर्य का व्रत ले लेता है, तब उसकी कोई सार्थकता है। जब मरता हआ आदमी अन्न-जल का त्याग कर देता है, जब डाक्टर बता देते हैं कि घड़ी दो घड़ी से ज्यादा नहीं, जब बिलकुल पक्का हो जाता है कि मर ही रहे हैं, तो अन्न-जल का त्याग कर देता है। उसका कोई भी मूल्य नहीं है। लेकिन जो जीवन को पूरी तरह अभी स्वस्थ मानकर अन्न-जल का त्याग कर देता है
और मृत्यु की प्रतीक्षा करता है आनंदपूर्वक, तो उसका कोई अर्थ है। ___ आप अपनी बेबसी में जब त्याग करते हैं तो अपने को धोखा दे रहे हैं। अपने को दे सकते हैं, जगत की व्यवस्था को धोखा आप न दे सकेंगे। इसलिए दो बातें ठीक से समझ लें। एक. बेबसी का नाम त्याग नहीं है. सामर्थ्य का नाम त्याग है। इसलिए त्याग के पहले समर्थ हो जाना अत्यंत जरूरी है और त्याग के क्षण में सामर्थ्य हो तो ही त्याग में त्वरा, तेजी, चमक, ओज उत्पन्न होता है। इसलिए महावीर ने हिंदू व्यवस्था की, जो वर्ण की कल्पना थी, आश्रम की कल्पना थी, वह बिलकुल तोड़ दी। और उन्होंने कहा कि जब प्रखर हो ऊर्जा जीवन को भोगने की, तभी रूपांतरण है । जब सारा जीवन बहता हो कामवासना की तरफ, तभी लौट पड़ना। ___ जब रिक्त हो जाती हो-जैसे, बंदूक की गोली चल चुकती हो, और फिर अहिंसक हो जाये । चली चलायी बंदूक की कारतूस कहे कि अब मैंने अहिंसा का व्रत ले लिया, उसमें कोई भी सार्थकता नहीं है। लेकिन हम यही करते हैं। या तो हमारे पास सुविधा नहीं होती, तो हम त्याग कर देते हैं, या हम असमर्थ हो जाते हैं, सुविधा भोगने में, तो हम त्याग करते हैं। ... त्याग का बिंदु वही है जो भोग का बिंदु । क्षण एक है, क्षण दो नहीं हैं। दिशा अलग है। त्याग अलग दिशा में जाता है, भोग अलग दिशा में, लेकिन है । त्याग और भोग एक ही क्षण की घटनाएं हैं, रुख अलग है, दिशा अलग है; लेकिन जहां से यात्रा होती है, वह बिंदु एक है।
इसलिए महावीर कहते हैं, सुंदर और प्रिय भोगों को पाकर भी जो पीठ फेर लेता है । सब प्रकार से स्वाधीन, किसी परतंत्रता में नहीं, किसी परवशता में नहीं, स्वतंत्र रूप से परित्याग कर देता है। परित्याग करना नहीं पड़ता, कर देता है। यह उसका संकल्प है। संकल्प से त्याग फलित होना चाहिए तो सामर्थ्य बढ़ती है, शक्ति बढ़ती है। असमर्थता से त्याग होता है तो दीनता बढ़ जाती है।
'जो मनुष्य किसी परतंत्रता के कारण वस्त्र, गंध, अलंकार, स्त्री और शयन आदि का उपभोग नहीं कर पाता, वह सच्चा त्यागी नहीं कहलाता।'
'सदगुरु तथा अनुभवी वृद्धों की सेवा करना, मूल् के संसर्ग से दूर रहना, एकाग्र चित्त से सत् शास्त्रों का अभ्यास, उनके गम्भीर अर्थ
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