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महावीर-वाणी भाग : 2
महावीर कहते हैं, भरोसा व्यक्ति का है और अगर व्यक्ति कुछ कहता हो, और वेद विपरीत हो, तो वेद गलत हैं, व्यक्ति गलत नहीं है। इस फर्क को ठीक-से समझ लें।
शास्त्र मृत हैं, व्यक्ति जीवित है। मृत पर बहुत भरोसा उचित नहीं है । और मृत का अगर कोई मूल्य भी है, तो भी इसीलिए है कि किसी जीवित व्यक्ति के वचन हैं वहां । लेकिन शास्त्र कितना ही प्राचीन हो, कितना ही मूल्यवान हो, किसी भी जीवित व्यक्ति के अनुभव को गलत करने के काम नहीं लाया जा सकता।
महावीर व्यक्ति पर इतना भरोसा करते हैं, जितना पृथ्वी पर किसी दूसरे व्यक्ति ने नहीं किया है। व्यक्ति की चरम मूल्यवत्ता महावीर को स्वीकार है । तो वेद जैसे कीमती शास्त्र को भी महावीर कह देते हैं, छोड़ देना होगा, अगर व्यक्ति के अनुभव के अनुकूल न हो । जीवित व्यक्ति चरम-मूल्य है, अंतिम इकाई है।
यह बहुत बड़ी क्रांतिकारी धारणा है । मन को भी बड़ी चोट पहुंचाती है । और मजे की बात यह है कि जैन भी इस धारणा के अनुकूल नहीं चल पाये । जैन भी अब महावीर के वचन को सुनते हैं। अगर किसी व्यक्ति का अनुभव महावीर के वचन के विपरीत जाता हो, तो वे कहेंगे कि यह व्यक्ति गलत है। फिर महावीर का वचन वेद बन गया है । इसलिए जैन हिंदू-धर्म का एक हिस्सा होकर मर गये । उनका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है. हो नहीं सकता । क्योंकि महावीर की मौलिक धारणा ही नष्ट हो गई । महावीर की धारणा यह है कि व्यक्ति का सत्य चरम है। और इसलिए निरन्तर महावीर बार-बार कहते हैं कि जो मैं कह रहा हूं, यह उनका अनुभव है, जो केवलज्ञान' को उपलब्ध हुए हैं। यह अनुभव है। किसी शास्त्र की गवाही महावीर नहीं देते। हमेशा गवाही व्यक्तियों की है। 'केवलदर्शन के धर्ता जिन भगवानों ने इस सबको लोक कहा है।'
और भी कुछ बातें इसमें खयाल ले लेनी जरूरी हैं। केवलदर्शन का अर्थ है, जो उस अवस्था को उपलब्ध हो गये जहां मात्र ज्ञान रह आता है और जानने को कुछ भी नहीं । हम जब भी कुछ जानते हैं, तो कुछ जानते हैं—कोई आब्जेक्ट। __आप यहां बैठे हैं, मैं आपको देख रहा हूं, तो मैं आपको जान रहा हूं। लेकिन आपको जान रहा हूं, फिर आप यहां से हट जाएं और जानने को कुछ भी न बचे, सिर्फ मेरा जाननेवाला रह जाए-सो न जाए, मूर्छित न हो जाए, होश में हो, जानने को कुछ भी न बचे और सिर्फ जाननेवाला बच जाए; मन के पर्दे पर सेसारी तस्वीरें खो जाएं, सिर्फ चेतना का प्रवाह बच जाए, उस अवस्था को महावीर केवलज्ञान' कहते हैं, शुद्ध-ज्ञान-मात्र-ज्ञान । जो ऐसे मात्र-ज्ञान को उपलब्ध हो जाते हैं, उनको महावीर 'जिन' कहते हैं। जिन का अर्थ है, जिन्होंने जीत लिया, जिन्होंने जीवन की परम विजय उपलब्ध कर ली, जिनको जीतने को अब कुछ भी न बचा । और ऐसे जिनों को महावीर 'भगवान' कहते
यह भी समझ लेना जरूरी है कि महावीर के लिए 'भगवान' का वही अर्थ नहीं है, जो हिंदुओं के लिए है, ईसाइयों के लिए है, मुसलमानों के लिए है । महावीर की 'भगवान' की बड़ी अनूठी अवधारणा है।
तीन बातें खयाल में ले लेनी जरूरी हैं :
एक तो महावीर कहते हैं, उतने ही भगवान हैं, जितनी आत्माएं हैं। भगवान एक नहीं है । एक भगवान की धारणा बहुत डिक्टेटोरियल है, बहत तानाशाहीपर्ण है। महावीर कहते हैं. प्रत्येक आत्मा भगवान है । जिस दिन पता चल जायेगा. उस दिन प्रगट हो जायेगी । जब तक पता नहीं चला है, तब तक वृक्ष बीज में छिपा है।
अनंत भगवानों की धारणा है महावीर की, अनंत—जितने जीव हैं। आप ऐसा नहीं सोचना कि आप ही हैं। चींटी में जो जीव है, वह भी
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