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महावीर-वाणी भाग : 2
लेकिन महावीर ने धन नहीं छोड़ा, धन से अपने को छुड़ाया। यह प्रक्रिया अलग है। धन पर ध्यान नहीं है, अपने पर ध्यान है, कि जो-जो चीज मुझे पकड़ती है, उसकी पकड़ मेरे ऊपर क्यों है। वह पकड़ मेरी न रह जाए।
फिर ध्यान रहे, धन आपको पकड़े हुए भी नहीं है, आप ही धन को पकड़े हुए हैं। इसलिए असली सवाल धन छोड़ने का नहीं है, असली सवाल अपनी पकड़ छोड़ने का है। इसलिए यह भी हो सकता है कि कोई आदमी धन के बीच भी पकड़ छोड़ दे-हुआ है। और यह भी हो सकता है कि कोई आदमी धन छोड़कर भी पकड़ न छोड़े-यह रोज हो रहा है।
बारीक है दोनों के बीच मार्ग । महावीर छुड़ा रहे हैं, अपनी पकड़ । जहां-जहां पकड़ है, छोड़ रहे हैं। जहां-जहां सहारा है, छोड़ रहे हैं। क्योंकि अनुभव में आ रहा है कि सब सहारे बाधा बन गये हैं। उन्हीं की वजह से नाव रुकी है। ___ धर्म है, गति का तत्व । विज्ञान को बड़ी कठिनाई थी सौ साल पहले, तो विज्ञान ने एक तत्व की कल्पना की थी ईथर' । क्योंकि विज्ञान को कठिनाई थी कि सूर्य की किरणें आती हैं, यात्रा होती है, तो कोई-न-कोई तत्व चाहिए जिसमें यात्रा हो । तो ईथर परिकल्पित था, कि कोई-न-कोई तत्व होना चाहिये, नहीं तो किरण कैसे यात्रा करेगी। तो यह महाकाश जो शून्य है, इसमें कोई तत्व होना चाहिए । उस तत्व का कोई पता नहीं था। ईथर परिकल्पित था। क्योंकि यात्रा हो रही है इसलिए कोई तत्व चाहिये। अब ईथर की मान्यता क्षीण हो गई है। लेकिन, कहीं-न-कहीं चित्त में यह बात घूमती ही है विज्ञान के भी कि अगर कोई चीज यात्रा कर रही है, तो माध्यम जरूरी है। एक नदी बह रही है, तो दो किनारे जरूरी हैं। उन दो किनारों के माध्यम के बिना नदी नहीं बह पायेगी। __ डार्विन ने सिद्ध किया कि मनुष्य विकास कर रहा है, लेकिन डार्विन को खयाल नहीं है, जो महावीर को खयाल है। अगर मनुष्य विकास कर रहा है, तो गति हो रही है। तो गति की एक धारणा, और गति का एक मूल द्रव्य होना चाहिए, अन्यथा गति नहीं होगी। मनुष्य यात्रा कर रहा है। पशु से मनुष्य हो गया है, या बंदर से मनुष्य हो गया है। डार्विन के हिसाब से मछली की और यात्रा चल रही है । डार्विन के हिसाब से पहला जीवन का तत्व था, पहला नदियों के किनारे लगी पत्थर पर जो काई होती है, वह है । हरी काई, वह जीवन का पहला तत्व है । उस हरी काई से आप तक यात्रा हो गई। आप तक ही नहीं, महावीर तक भी यात्रा हो गई।
कहते हैं. यह जो इतना एवोल्यशन हो रहा है. इतनी गति हो रही है. इस गति का एक तत्व चाहिए। उसे वे 'धर्म' कहते हैं। और जो उस गति के तत्व को पहचान लेता है अपने जीवन में, और उसका संगी-साथी हो जाता है, उसमें अपने को छोड़ देता है, वह विकास की चरम अवस्था पर पहंच जाता है। वह चरम अवस्था परमात्मा है। इसलिए धर्म वहां समाप्त हो जता है, जहां आप परमात्मा होते हैं। वहां यात्रा पूरी हो जाती है। मंजिल आ गई। - अगर एक पत्थर को आप रास्ते पर पड़ा देखते हैं तो आप कभी भी नहीं सोचते कि वह रुका क्यों है? आपमें और पत्थर में फर्क क्या है? पत्थर के पास ही एक पौधा उग रहा है, उस पत्थर और पौधे में फर्क क्या है? __पौधा बढ़ रहा है, गतिमान है; पत्थर अगतिमान है, रुका है, ठहरा है। उसकी अगति के कारण ही उसकी चेतना कुंद है। वहां भी परमात्मा छिपा है, लेकिन अधर्म को बड़े जोर से पकड़ा है। इतने जोर से पकड़ा है कि कोई भी गति नहीं हो रही है। ___ गति के दो बिंदु हम खयाल में ले लें। एक पत्थर-जैसी अवस्था, बंद, सब तरफ से कुछ प्रवेश नहीं करता, कोई प्रवाह नहीं है; सब ठहरा हुआ, फ्रोजन, जमा हुआ; और फिर एक तरल अवस्था महावीर की, जहां कुछ भी ठहरा हुआ नहीं, कुछ भी 3 कुछ भी रुका हुआ नहीं; जीवंत प्रवाह है, मात्र प्रवाह है।
'अधर्म और धर्म'-हम आमतौर से सोचते हैं अधर्म को अनीति की भाषा में, धर्म को नीति की भाषा में । महावीर सोचते हैं विज्ञान की भाषा में, नीति की भाषा में नहीं। इसलिए जो चीज भी आपको परमात्मा की तरफ ले जा रही है, वह धर्म है।
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