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आप ही हैं अपने परम मित्र
क्या, मामला क्या है?
अगर सिर में दर्द था, तो कमरे में जब कोई नहीं था तब भी कूल्हना चाहिए था । अगर कूल्हना बीमारी से आ रहा है, तो किसी से क्या लेना-देना! लेकिन दूसरे को देखकर बीमारी एकदम कम-बढ़ क्यों होती है? रस है बीमारी में। ___ और मनसविद कहते हैं कि स्त्रियों की तो अधिक बीमारियां उस रस से पैदा होती हैं, क्योंकि उनको और कोई उपाय दिखायी नहीं पड़ता कि कैसे वह पति का आकर्षण कायम रखें । पहले तो उन्होंने सौंदर्य से रख लिया, सजावट से रख लिया। थोड़े दिन में वह बासा हो जाता है, परिचित हो जाता है। तो अब पति का ध्यान किस तरह आकर्षित करना! तो स्त्रियां बीमार रहना शुरू कर देती हैं। उनको भी पता नहीं है कि वह क्यों बीमार हैं? तो वह दवा भी लेंगी, लेकिन बीमारी में रस भी जारी रहेगा। तो दवा भी जारी रहेगी और भीतर से उनका दवा के लिए सहयोग भी नहीं है। वह ठीक होना नहीं चाहतीं। क्योंकि ठीक होते ही, वह जो ध्यान पति दे रहा था, वह विलीन हो जायेगा। जब पत्नी बीमार है तो पति खाट के पास आकर बैठता भी है, सिर पर हाथ भी रखता है। जब वह ठीक है तब कोई हाथ नहीं रखता, कोई ध्यान भी नहीं देता।
अगर दुनिया में बीमारी कम करनी है तो बच्चों के साथ जब वे बीमार हों तब बहत ज्यादा प्रेम मत दिखाना । क्योंकि वह खतरनाक है। बीमारी और प्रेम का जुड़ना बहुत खतरनाक है । बीमारी से ज्यादा बड़ी बीमारी आप पैदा कर रहे हैं । बच्चे जब स्वस्थ हों, तब उनके प्रति प्रेम प्रकट करना और ज्यादा ध्यान देना । जब बीमार हों, तब थोड़ी तटस्थता रखना । तब उतना प्रेम, उतना शोरगुल मत मचाना । लेकिन जब कोई बीमार होता है। तब हम एकदम वर्षा कर देते हैं। जब कोई ठीक होता है, तो हमें कोई मतलब नहीं। _हम भी सोचते हैं कि जब ठीक है, तब मतलब की बात क्या? लेकिन आपको पता नहीं, आपका यह ध्यान बीमारी का भोजन है। इसलिये बच्चा जब भी चाहेगा कि कोई ध्यान दे, चाहे वह कितना ही बड़ा हो जाये, तब वह बीमारी को निमंत्रण देगा । यह निमंत्रण भीतरी होगा। दवा ऊपर से लेगा और भीतर ठीक नहीं होना चाहेगा। तब उपद्रव हो जायेगा। तो चाहे एलोपैथी लें, चाहे कोई पैथी लें, एक काम सब में जरूरी होगा कि अपना पूरा भाव ठीक होने का जोड़ दें।
चाहे संकल्प के मार्ग पर चलें, चाहे समर्पण के मार्ग पर, जो भी आपकी ऊर्जा है वह सारी की सारी उस मार्ग पर जोड़ दें। दो मार्गों को नहीं जोडना है, साधक को भीतर अपनी दो ऊर्जाओं को जोडना है। ये दोनों ऊर्जाएं जडकर किसी भी मार्ग पर चली जाये तो यात्रा अन्त तक पहुंच जायेगी। भीतर तो ऊर्जाएं बंटी रहें और आदमी मार्गों को जोड़ने में लगा रहे तो कभी भी नहीं पहुंच पायेगा। पैथीज जुड़कर जहर हो जाती हैं । अलग-अलग अमृत हैं। दो मार्ग जुड़कर भटकानेवाले हो जाते हैं। अलग-अलग पहुंचानेवाले हैं। __ एक मित्र ने पूछा है कि परमात्मा शब्द में नहीं, सत्य में है, ऐसा आपसे जाना । मैं भी इन शब्दों के जाल से छूटना चाहता हूं। लेकिन डर लगता है। डूबते को तिनके का सहारा है। गीता के पाठ से लगता है, सब ठीक चल रहा है। अगर छोड़ दूं तो आध्यात्मिक पतन न हो जाये। कहीं पापी न हो जाऊं।
यह भय स्वाभाविक है। लेकिन इसे समझ लें।
अगर मुझे सुनकर ही जाना कि शब्द में सत्य नहीं, अगर मुझे सुनकर ही जाना तो मुझसे तो शब्द ही सुने होंगे। तब खतरा है। तब गीता छूट सकती है, मैं पकड़ जाऊं । और गीता छोड़कर मुझे पकड़ने में कोई सार नहीं है । फिर तो पुराने को ही पकड़े रहना बेहतर है। क्योंकि पकड़ का अभ्यास है। नाहक बदलने से क्या सार होगा। __ मुझे सुनकर ही न जाना हो, मुझे सुनकर भीतर यह बोध जगा हो, मेरा सुनना केवल निमित्त रहा हो, मेरे सुनने से ही यह बात भीतर पैदा न हुई हो, मेरे सुनने का ही कुल जमा परिणाम न हो, मेरा सुनना केवल बाहर से निमित्त बना हो और भीतर एक बोध का जन्म हुआ
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