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यह निःश्रेयस का मार्ग है
का चिंतन, चित्त में धृतिरूप अटल शांति प्राप्त करना, यह निःश्रेयस का मार्ग है।' ___ इस सूत्र के दो हिस्से हैं-एक त्याग क्या है, और त्याग के बाद क्या करने योग्य है । क्योंकि त्याग सिर्फ एक निषेध नहीं है कि छोड़ दिया, बात खत्म हो गयी। छोडने से कछ मिलता नहीं। छोडने से सिर्फ बाधाएं कटती हैं। छोडने से कछ उपलब्धि नहीं होती, से भटकाव बचता है । छोड़ने से गलत यात्रा रुकती है, सही यात्रा शुरू नहीं होती। लेकिन बहुत लोग इस भ्रांति में रहते हैं। बहुत लोग यह सोचते हैं कि अरे मैंने पत्नी छोड़ दी, घर छोड़ दिया, धन छोड़ दिया, अब और क्या करना है? हमारे अनेक साधु इसी निषेध में जीते हैं, और हम भी इसी निषेध को बड़ा मूल्य देते हैं कि बेचारे ने पत्नी छोड़ दी, घर छोड़ दिया, बच्चे छोड़ दिये, महात्यागी है।
फिर पाया क्या? यह तो छोड़ दिया, बहुत अच्छा किया, फिर पाया क्या? फिर कुछ मिला भी? और अगर पत्नी छोड़ दी और पत्नी से श्रेष्ठतर कुछ न मिला, तो क्या अर्थ हुआ छोड़ने का? और जिसने पत्नी छोड़ दी, और कुछ मिला नहीं, उसके मन में पत्नी की तरफ दौड़ जारी रहेगी। क्योंकि इस अस्तित्व में खाली जगह को बर्दाश्त करने का उपाय नहीं है। प्रकृति खाली जगह को बर्दाश्त नहीं करती। अंतस जीवन में भी खाली जगह बर्दाश्त नहीं होती। अगर पत्नी की जगह परमात्मा न आ जाये तो पत्नी झांकती ही रहेगी उस खाली जगह में । झांकने की तरकीबें बहुत हो सकती हैं।
अगर धन छोड दिया और धर्म भीतर न उठा, तो यह इस छोडे हए आदमी की स्थिति त्रिशंक की हो जायेगी। इसलिए हमारे साध छोड़ तो देते हैं, पा कुछ नहीं पाते। फिर परेशान होते हैं। और वह इसी आशा में छोड़ देते हैं कि छोड़ने से ही पाना हो जायेगा।
छोड़ना आवश्यक है, पर्याप्त नहीं।
मैंने कुछ छोड़ दिया, इससे जो अगर मैं पकड़े रहता उसे तो जो-जो भूलें मुझसे होतीं, वे नहीं होंगी—यह निषेधक है। लेकिन अब मुझे कुछ करना होगा। तो क्या करना होगा। __महावीर कहते हैं, 'सदगुरु अनुभवी वृद्धों की सेवा करना।'
महावीर बहुत ही सशर्त बोलते हैं, क्योंकि उन्हें पक्का पता है कि जो सुननेवाले लोग हैं, उन्हें जरा-सा भी छिद्र मिल जाये तो वे इस छिद्र में से अपना बचाव खोज लेते हैं। __ तो महावीर वृद्ध की सेवा नहीं बोलते, क्योंकि वृद्ध होने से कोई ज्ञानी नहीं होता । सिर्फ बूढ़े होने से कोई ज्ञानी नहीं होता। सिर्फ बूढ़े पका काम ही क्या है? लेकिन बूढ़े बूढ़े होकर समझते हैं
। हैं कि कुछ पा लिया। __सिर्फ खोया है, कुछ पाया नहीं। जिंदगी खोई है। मगर वे समझते हैं कि बढ़े हो गये तो कुछ पा लिया। सिर्फ बूढे हए हैं, और इस होने में उनका हाथ ही क्या है? उन्होंने तो पूरा चाहा था कि न हों, फिर भी हो गये। अपनी सब कोशिश की थी, फिर भी हो गये। अब इसको ही वे गुण मान रहे हैं, यह भी कोई योग्यता है!
तो महावीर कहते हैं, अनुभवी वृद्धों की सेवा।
बड़ा मुश्किल है! वृद्ध और अनुभवी, बड़ी कठिन बात है। बूढ़े तो सभी हो जाते हैं, अनुभवी सभी नहीं होते। अनुभव का मतलब है-वह जो-जो जीवन में हुआ, वह सिर्फ हुआ नहीं, उससे कुछ सीखा भी गया ।
अब एक बूढ़ा आदमी भी अगर क्रोध करता है तो समझना, अनुभवी नहीं है। क्योंकि जिंदगीभर क्रोध करके अगर इतना भी नहीं सीख पाया कि क्रोध व्यर्थ है, तो यह जिंदगी बेकार गयी । एक बूढ़ा आदमी भी अगर उन्हीं क्षुद्र बातों में उलझा है, जिनमें बच्चे उलझे होते हैं, तो समझना कि यह आदमी बूढ़ा तो हो गया, वृद्ध नहीं हुआ। सिर्फ बुढ़ा गया, सिर्फ उमर पक गयी, लेकिन धूप में पक गये, अनुभव में नहीं। लेकिन आप हैरान होंगे कि बढे भी वही करते रहते हैं जो बच्चे करते हैं। हालांकि निश्चित ही बढे करते हैं तो ज्यादा
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