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यह निःश्रेयस का मार्ग है भी अस्तित्व को स्वीकार नहीं है। आप स्वतंत्र हैं रुकने को, कूद जाने को । सागर मौजूद है, नदियों को निमंत्रण भी नहीं देता, बुलाता भी नहीं । नदियां स्वतंत्र हैं, रुक जायें, तालाब बन जायें, छलांग ले लें, सागर में खो जायें। ___ जिस व्यक्ति को यह खयाल हो रहा हो कि मैं पापी हूं, यह खयाल महत्वपूर्ण है । क्योंकि इस खयाल में ही अहंकार गलता है । जिसको यह खयाल हो रहा हो कि मेरे लिए उसके द्वार न खुले होंगे, वह निश्चिंत रहे, उसके लिए द्वार बिलकुल ही खुले हुए हैं। और बहता रहे
और धीरे-धीरे अपने को डुबाता रहे। एक न एक दिन वह घड़ी घटती है, जब भीतर वह जो अहंकार की छोटी-सी टिमटिमाती ज्योति है, वह बुझ जाती है। और जिस दिन वह टिमटिमाती ज्योति बुझती है, उसी दिन हमें पता चलता है उस सूर्य का, जो हमेशा मौजूद था; लेकिन हम अपनी टिमटिमाती ज्योति में इतने लीन थे कि सूर्य की तरफ आंख भी नहीं जाती थी। जब तक मैं न बुझ जाऊं, तब तक मुझे उसका पता नहीं चलता जो चारों तरफ मौजूद है; क्योंकि मैं अपने में ही संलग्न हूं, अपने में ही लगा हुआ हूं। टू मच आक्युपाइड विद मायसेल्फ, सारी व्यस्तता अपने में लगी है। ___ जिस दिन जीसस को सूली हुई, उस दिन गांव में एक आदमी की दाढ़ में दर्द था। सारा गांव जीसस को सूली देने जा रहा है। जीसस कंधे पर अपना क्रास लेकर उस मकान के सामने से निकल रहे हैं, और वह आदमी बैठा है, और जो भी रास्ते से निकलता है वह अपने दाढ़ के दर्द की उससे चर्चा करता है। वह कहता है, आज बड़ी तकलीफ है दांत में । लोग कहते हैं, छोड़ो भी। पता है कुछ? आज मरियम के बेटे जीसस को सूली दी जा रही है। वह आदमी सुनता है, लेकिन सुनता नहीं। वह कहता है, होगा। लेकिन दांत में बहुत दर्द है। __ जिस दिन जीसस को सूली हुई उस दिन वह आदमी अपने दांत में ही उलझा था । उस दिन इस पृथ्वी का बड़े से बड़ा चमत्कार घट रहा था, लेकिन वह आदमी अपने दांत के दर्द में उलझा था । और हम सब ऐसे ही लोग हैं जिनकी दाढ़ में दर्द है। अपनी अपनी दाढ़ का दर्द लिये बैठे हैं। चारों तरफ विराट घटना घट रही है, हर पल । वह मौजूद है सब तरफ, लेकिन हमारी दाढ़ दुख रही है। हम उसी में लीन हैं। __और अहंकार बड़ी पीड़ा का घाव है। दाढ़ भी वैसा दर्द नहीं देती, जैसा अहंकार देता है। खयाल है आपको, दाढ़ के दर्द में थोड़ी मिठास भी होती है, दर्द भी होता है, मिठास भी होती है। अहंकार के दर्द में बड़ी मिठास होती है । दर्द होता है, तब हम सोचते हैं छोड़ दें, लेकिन मिठास इतनी होती है कि छोड़ भी नहीं पाते। उस मिठास के कारण हम दर्द को भी झेलते हैं। जब कोई गाली देता है तब चोट लगती है, दर्द होता है। जब कोई फूलमाला गले में डालता है, तब मिठास भर जाती है। सारे शरीर में रोयां-रोयां पुलकित हो जाता
ये दोनों बातें एक साथ छोड़नी पड़ेंगी। अगर गाली का दुख छोड़ना है तो फिर फूलमाला का सुख भी छोड़ देना पड़ेगा । वह सुख इतना मीठा है कि हम कितने ही दुख उसके लिए झेल लेते हैं । हजार कांटे हम झेल लेते हैं, एक फूल के लिए । हजार निन्दा झेल लेते हैं, एक प्रशंसा के लिए । मिठास है बहत । इस मिठास को और पीड़ा को एक साथ देखना होगा और धीरे-धीरे इस 'मैं' के घाव को छोड़ते जाना होगा। एक दिन, जिस दिन 'मैं' नहीं रहता, उस दिन मिलन हो जाता है। ___ इस 'मैं' के न रहने के दो रास्ते हैं—एक रास्ता है महावीर का, एक है मीरा का । एक रास्ता है कि इस 'मैं' को इतना शुद्ध करो, इतना परिशुद्ध करो कि उसकी शुद्धता के कारण ही वह शून्य होकर तिरोहित हो जाये । एक रास्ता है, यह जैसा है, वैसा ही परमात्मा के चरणों
ख दो । क्योंकि उसके चरण में रख देना आग में रख देना है। वह आग जला लेगी. निखार लेगी। दोनों कठिन हैं. ध्यान रखना। आमतौर से लोग सोचते हैं कि दूसरी बात सरल मालूम पड़ती है। समर्पण कर दिया, खत्म हुआ मामला । लेकिन समर्पण कर दिया,
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