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ये चार शत्रु है कि गुरु शिष्य के द्वारा पुनः-पुनः मुक्त होता है। और यह संबंध इतना आत्मीय और निकट है कि वहां पराया कोई भी नहीं है।
इसी संदर्भ में पूछा है कि यह भी समझायें कि हिंसक वृत्ति के कारण निकले आदेश, और करुणा के कारण निकले उपदेश में साधक कैसे फर्क कर पाये?
साधक फर्क कर ही नहीं पायेगा। करना भी नहीं चाहिए। साधक को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। इसे ठीक से समझ लें।
गुरु ने चाहे हिंसा भाव से ही साधक को आदेश दिया हो। यह हिंसा अगर होगी तो गुरु के सिर होगी। साधक को तो आदेश का पालन कर लेना चाहिए। वह तो रूपांतरित होगा ही, चाहे आदेश करुणा से दिया गया हो और चाहे आदेश हिंसक भाव से दिया गया हो। चाहे मैं किसी को बदलने में इसलिए मजा ले रहा हूं कि बदलने में तोड़ने का मजा है, मिटाने का मजा है। चाहे मैं इसलिए दूसरे को आदेश दे रहा हूं कि नये के जन्म का आनन्द है, नये के जन्म की करुणा है। पुराने को मिटाने में हिंसा हो सकती है, नये को बनाने में करुणा है। मैं किसी भी कारण से आदेश दे रहा हूं, यह मेरी बात है। लेकिन जिसको आदेश दिया गया है, उसे कोई फर्क नहीं पड़ता।
एक मकान को गिराना है और नया बनाना है। हो सकता है मुझे गिराने में ही मजा आ रहा हो, इसलिए बनाने की बातें कर रहा हूं। इसलिए उसको तोड़ने में मुझे रस है । या मैं बनाने में इतना उत्सुक हूं कि तोड़ना मजबूरी है, तोड़ना पड़ेगा । लेकिन यह मेरी बात है । मकान के बनने में कोई फर्क नहीं पड़ता है। इसलिए साधक को यह चिन्ता नहीं करनी चाहिए कि गरु ने जो खिडकी के बाहर फेंक दिया है. यह तोड़ने का रस था, कोई हिंसा थी या कोई महाकरुणा थी।
और अगर साधक यह फर्क करता है, तो समर्पित नहीं है। शिष्य नहीं है। यह तो उसे पहले ही गरु के पास आने के पहले सोच लेना चाहिए। यह समर्पण के पहले सोच लेना चाहिए । गुरु के चुनाव की स्वतंत्रता है, गुरु के आदेशों में चुनाव की स्वतंत्रता नहीं है । मैं 'अ' को गुरु चुनूं कि 'ब' को, कि 'स' को, मैं स्वतंत्र हूं। लेकिन 'अ' को चुनने के बाद स्वतंत्र नहीं हूं कि 'अ' का-'अ' आदेश मानूं कि 'ब' आदेश मानू, कि 'स' आदेश मान ।
गुरु को चुनने का अर्थ समग्र चुनना है। इसलिए झेन ने, सूफियों ने, जहां बहुत गहन गुरु की परम्परा विकसित हुई है, और बड़े आन्तरिक रहस्य उन्होंने खोले हैं।
सूफी शास्त्र कहते हैं कि गुरु को चुनने के बाद खण्ड-खण्ड विचार नहीं किया जा सकता कि वह क्या ठीक कहता है और क्या गलत कहता है। अगर लगे कि गलत कहता है, तो पूरे ही गुरु को छोड़ देना तत्काल । ऐसा मत सोचना कि यह बात न मानेंगे, यह गलत है। यह बात मानेंगे, यह सही है । इसका तो मतलब हुआ कि गुरु के ऊपर आप हैं, और अन्तिम निर्णय आपका ही चल रहा है कि क्या ठीक है और क्या गलत है। तो परीक्षा गुरु की चल रही है, आपकी नहीं। और इस तरह के लोग जब मुसीबत में पड़ते हैं तो जिम्मा गुरु का है।
सूफी कहते हैं कि जब गुरु को चुन लिया तो पूरा चुन लिया। यह टोटल एक्सटेन्स है। अगर किसी दिन छोड़ना हो तो टोटल छोड़ देना, पूरा छोड़ देना। हट जाना वहां से। लेकिन आधा चुनना और आधा छोड़ना मत करना । बहत कीमती बात है कि यह ठीक लगता है, इसलिए चुनेंगे। तो आखिर में आप ही ठीक हैं। जो ठीक लगता है वह चुनते हैं। जो गलत लगता है, वह नहीं चुनते हैं। तो आपको ठीक और गलत का तो राज मालूम ही है। अब बचा क्या है चुनने को? जब आप यह भी पता लगा लेते हैं कि क्या ठीक है और क्या गलत है, तो आपको बचा ही क्या है? शिष्य होने की कोई जरूरत ही नहीं है। लेकिन अगर शिष्य होने की जरूरत है तो आपको पता नहीं है कि क्या ठीक है और क्या गलत है। __ गुरु का चुनाव समग्र है । छोड़ना हो तो सूफी कहते हैं, पूरा छोड़ देना । बड़ी मजे की बात सूफियों ने कही है। बायजीद ने कहा है कि अगर गुरु को छोड़ना हो तो जितने आदर से स्वीकार किया था, जितनी समग्रता से, उतने ही आदर से, उतनी ही समग्रता से छोड़
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