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ये चार शत्रु
जो आदमी स्वयं को बचाना चाहता है, वह दूसरों को मिटाना चाहेगा। क्योंकि स्वयं को बचाने का दूसरे को मिटाये बिना कोई उपाय नहीं है। महावीर का अहिंसा पर इतना जोर इसीलिए है। वे कहते हैं, दूसरे को मिटाने की बात ही छोड़ दो, और ध्यान रखना, दूसरे को मिटाने की बात वही छोड़ सकता है, जो स्वयं को बचाने की बात छोड़ दे।
जब आप दूसरे को, किसी को भी नहीं मिटाना चाहते, तब एक बात पक्की हो गयी, कि आपको अपने को बचाने का कोई मोह नहीं है। अगर अपने को बचाने का कोई भाव नहीं बचा है, तो फिर कोई क्रोध नहीं है, फिर कोई मोह नहीं, कोई माया नहीं, कोई मान नहीं । इसका यह मतलब नहीं कि जो अपने को बचाने का भाव छोड़ देता है वह नहीं बचता है। मामला उल्टा है। जो नहीं बचाता अपने को, वही बचता है और जो बचाता है, वह बार-बार मरता I
जीसस ने कहा है, 'जो बचायेगा वह मिटेगा, और जो अपने को खोने को तैयार है, उसको कोई भी मिटा नहीं सकता है।' लेकिन ऐसा मत सोचना कि अगर ऐसा है कि खोने की तैयारी से हम सदा के लिए बच जायेंगे, इसलिए हम खोने को तैयार हैं, तो आप न बचेंगे । आपका मनोभाव बचने के लिए ही है। वही वासना, जन्मों का कारण है ।
कोई आपको जन्म देता नहीं, आप ही अपने को जन्म देते हैं। आप ही अपने पिता हैं, आप ही अपने माता हैं, आप ही अपने को जन्म दिये चले जाते हैं। यह जन्म का जो उपद्रव है, इसके कारण आप ही हैं। इसलिए तो मौत से इतनी घबराहट होती है, इतनी बेचैनी होती है। और मरते वक्त भी आदमी कहता है कि जन्म-मरण से छुटकारा हो जाये। लेकिन मतलब उसका इतना ही होता है कि मरण छुटकारा हो जाये । जन्म तो वह भाषा की भूल से कह रहा है, फिर से सोचेगा तो नहीं कहेगा।
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सोचें, जन्म से छुटकारा चाहते हैं? जीवन से छुटकारा चाहते हैं? जिस दिन आप जन्म से छुटकारा चाहते हैं, उस दिन मरण से छुटकारा हो जायेगा। हम सब मरण से छुटकारा चाहते हैं इसलिए नये जन्म का सूत्रपात हो जाता है। हम छोर से बचना चाहते हैं, जड़ से नहीं । मरण है पत्ता आखिरी, जन्म है जड़ तो जड़ ही काटनी होगी।
संन्यास का अर्थ है—जड़ को काटना। संसार का अर्थ है - पत्तों को काटना, काटते दोनों हैं। संन्यासी बुद्धिमान है। वह वहां से ता है जहां से काटना चाहिए। संसारी मूढ़ है। वह वहां काटता है, जहां काटने का कोई अर्थ नहीं है, बल्कि खतरा है। क्योंकि पत्ते समझते हैं कि कलम की जा रही है। तो एक पत्ता काटो, चार निकल आते हैं।
महावीर कहते हैं कि इन जड़ों को सींचते रहने से तो होगा बार-बार जन्म, बार-बार मृत्यु । और घूमोगे चक्र में, नीचे-ऊपर, सुख में, दुख में, हार में, जीत में, और यह चक्र है अनन्त । और ऐसा मत सोचना कि दुख इसलिए है कि मुझे अभी अभाव है। सब मिल जाये तो दुख न रहेगा।
तो महावीर कहते हैं कि तुम्हें अगर सभी मिल जाये स्वर्ण पृथ्वी का, सभी मिल जाये धन-धान्य, हो जाये समस्त पृथ्वी तुम्हारी दास तो भी तुम्हें तृप्त करने में असमर्थ है।
तृप्ति का संबंध क्या तुम्हारे पास , इससे नहीं है, क्या तुम हो, इससे है। और जो अतृप्त है उसके पास कुछ भी हो तो अतृप्त होगा । और जो तृप्त है उसके पास कुछ हो या कुछ भी न हो तो भी तृप्त होगा ।
तृप्ति या अतृप्ति अंतर्दशाएं हैं। बाहर की वस्तुओं से उनका कोई भी संबंध नहीं है। इसलिए महावीर कहते हैं, सब तुम्हारे पास हो जाये तो भी तुम तृप्त न होओगे। क्योंकि न हमने सिकन्दर को तृप्त देखा, न हमने नेपोलियन को तृप्त देखा, न राकफेलर तृप्त है, न मार्गन तृप्त है, न कार्नेगी तृप्त है । सब उनके पास है, जो हो सकता है। शायद नेपोलियन के पास भी नहीं था जो राकफेलर के पास है । लेकिन तृप्ति ? तृप्ति का कोई पता नहीं ।
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