________________
महावीर-वाणी भाग : 2
वह भी काम करता है चित्रों के बेचने का । वह एक दुकानदार है, वह चित्र बेचने का काम करता है। उसकी कल्पना के ही बाहर है, समझ के ही बाहर है कि चित्र बनाने में ही कोई बात हो सकती है, जब तक चित्र बिके न, तब तक बेमानी है। तब तक व्यर्थ गया श्रम। __ उसने सोचा कि यह वानगाग जीवनभर हो गया बनाते-बनाते, इसका एक चित्र न बिका । कितना दुखी न होता होगा मन में! स्वभावतः व्यवसायी को लगेगा कि कितना दुखी न होता होगा मन में, कभी कुछ मिला नहीं । सारा जीवन व्यर्थ गया। तो उसने एक मित्र को कुछ पैसे दिये और कहा कि जाकर वानगाग का एक चित्र खरीद लो, कम से कम एक चित्र तो उसका बिके । उसको लगे कि कुछ मेरा चित्र भी बिका।
वह मित्र गया । उसे तो खरीदना था, यह कर्तव्य था। उसे कोई चित्र सेलेना-देना तो था नहीं । वानगाग चित्र दिखा रहा है, वह चित्र वगैरह देखने में उतना उत्सुक नहीं है, वह एक चित्र देखकर कहता है कि यह मैं खरीदना चाहता हूं। देखने में उसने कोई रस न लिया, डूबा भी नहीं, चित्रों में उतरा भी नहीं, चित्रों से उसका कोई स्पर्श भी नहीं हुआ । वानगाग खड़ा हो गया, उसकी आंख से आंसू गिरने लगे। उसने कहा, कि मालूम होता है, मेरे भाई ने तुम्हें पैसे देकर भेजा । तुम बाहर निकल जाओ और कभी दुबारा लौटकर यहां मत
आना। चित्र बेचा नहीं जा सकता। __ वह आदमी तो हैरान हुआ। वानगाग का भाई भी हैरान हुआ कि यह पता कैसे चला! जब उसने वानगाग को पूछा तो वानगाग ने कहा, इसमें भी कुछ पता चलने की बात है! उस आदमी को मतलब ही न था चित्रों से। उसे तो खरीदना था। खरीदने में उसका कोई भाव नहीं था। मैं समझ गया कि तुमने ही भेजा होगा। __ जीवनभर जिसके चित्र नहीं बिके, हमें भी लगेगा, कितनी पीड़ा रही होगी, लेकिन वानगाग पीड़ित नहीं था। आनंदित था। आनंदित था इसलिए कि वह बना पाया।
प्रेम भी ऐसा ही है। वह चित्र बनाना वानगाग का प्रेम था। जब आप किसी को प्रेम करते हैं तो पीछे कुछ मिलेगा, ऐसा नहीं, जब आप प्रेम करते हैं तभी आपके प्राण फैलते हैं, विस्तृत होते हैं। जब आप प्रेम के क्षण में होते हैं तभी आपकी चेतना छलांग लगाकर ऊंचाइयों पर पहुंच जाती है। जब आप प्रेम के क्षण में होते हैं, जब आप दे रहे होते हैं, तभी वह घटना घट जाती है जिसे आनंद कहते हैं। अगर आपको वह घटना नहीं घटी है तो आप समझना कि आप व्यवसायी हैं, प्रेम के काव्य को आपने जाना नहीं है। ___ अगर आप पूछते हैं कि मिलेगा क्या, तब फिर बहुत फर्क नहीं रह जाता, तब बहुत फर्क नहीं रह जाता। एक वेश्या भी प्रेम करती है, वह भी मिलने के लिए...क्या मिलेगा? इसमें उत्सुक है, प्रेम में उत्सुक नहीं है । एक पत्नी भी प्रेम करती है, वह भी क्या मिलेगा, इसमें उत्सुक है। प्रेम में उत्सुक नहीं है । मिलना सिक्कों में हो सकता है, साड़ियों में हो सकता है, मिलना गहनों में हो सकता है, मकान में हो सकता है, सुरक्षा में हो सकता है, इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता। यह सब इकानामिकली हैं, सभी आर्थिक मामले हैं, चाहे नगद रुपये हों, चाहे नगद साड़ियां हों, चाहे नगद गहने हों, चाहे नगद मकान हो, चाहे भविष्य की सुरक्षा हो, बुढ़ापे में सेवा की व्यवस्था हो, कुछ भी हो, यह सब पैसे का ही मामला है।
तो वेश्या में और फिर प्रेयसी में फर्क कहां है? इतना ही फर्क है कि वेश्या तत्काल इंतजाम कर रही है, प्रेयसी लंबा इंतजाम कर रही है, लांग टर्म प्लानिंग। लेकिन फर्क कहां है? अगर मिलने पर ध्यान है तो कोई फर्क नहीं है। प्रेम वहां नहीं है, व्यवसाय है। फिर व्यवसाय कई ढंग के होते हैं-पत्नी के ढंग का भी होता है, वेश्या के ढंग का भी होता है।
यह वेश्या और पत्नी में कोई बुनियादी अंतर तब तक नहीं हो सकता, जब तक ध्यान मिलने पर लगा हुआ है । बुनियादी अंतर उस दिन पैदा होता है जिस दिन प्रेम अपने में पूरा है, उसके पार कुछ भी नहीं। इसका यह मतलब नहीं कि उसके पार कुछ घटित नहीं होगा,
44
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org