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महावीर वाणी भाग 2
महावीर जैसे व्यक्ति मनुष्य के अस्तित्व को देखते हैं उसकी अखण्डता में। इसलिए महावीर ने कहा है, कहां से शुरू करो, यह गौण है, क्योंकि बाहर और भीतर जुड़े हुए हैं। अगर एक व्यक्ति अहिंसक आचरण से शुरू करे, तो भी उसको अप्रमाद साधना पड़ेगा । उस होश साधना पड़ेगा । क्योंकि बिना होश के अहिंसा नहीं हो सकती। और अगर बिना होश के अहिंसा हो रही है तो वह महावीर की अहिंसा नहीं है, वह जैनियों की अहिंसा भले हो । महावीर की अहिंसा में तो अप्रमाद आ ही जायेगा, क्योंकि महावीर की अहिंसा का मतलब दूसरे को मारने से बचाना नहीं है।
यह बड़े मजे की बात है । क्योंकि दूसरे को हम मार ही कहां सकते हैं। इसलिए जो लोग सोचते हैं, अहिंसा का अर्थ है दूसरे को न मारना—उनसे ज्यादा मूढ़, चिंतना करनेवाले लोग खोजने मुश्किल हैं। लेकिन यही समझाया जाता है कि अहिंसा का अर्थ है दूसरे कोन मारना । दूसरे की हत्या न करना, दूसरे को दुख न पहुंचाना ।
इसे हम थोड़ा समझ लें ।
महावीर कहते हैं, आत्मा अमर है, इसलिए दूसरे को मार कैसे सकते हैं। दूसरे को मारने का उपाय कहां है? अगर मैं एक चींटी को पैर रखकर पिसल डालता हूं, तो भी मैं मार नहीं सकता । चींटी मर नहीं सकती मेरे पिसल देने से। अगर चींटी मर ही नहीं सकती, और उसकी आत्मा अमृत है, तो फिर दूसरे को मारना, नहीं मारना - - ऐसी बातें करना अहिंसा के संबंध में बेमानी हैं। मार तो हम सकते ही नहीं — पहली बात । मारने का तो कोई उपाय ही नहीं है। और अगर हम मार ही सकते और आत्मा मिट जाती तो फिर आत्मा को खोजने का भी कोई उपाय नहीं था । फिर व्यर्थ थी सारी खोज । क्योंकि अगर मेरे मारने से किसी की आत्मा मर जाती है तो कोई मुझे मार डाले, मेरी आत्मा मर जायेगी । तो जो मर जाती है, उस आत्मा को पाकर भी क्या करेंगे? वह तो जरा-सा पत्थर फेंक दिया जाये और आत्मा खत्म हो जायेगी ।
अमृत की तलाश है, इसलिए महावीर यह नहीं कह सकते कि दूसरे को मत मारो, यह अहिंसा की परिभाषा है। दूसरा मारा जा नहीं सकता - पहली बात। फिर अहिंसा का क्या अर्थ होगा?
महावीर के लिए अहिंसा का अर्थ है दूसरे को मारने की धारणा मत करो। दूसरे को मारा नहीं जा सकता, लेकिन दूसरे को मारने का विचार किया जा सकता है। वही विचार पाप है। दूसरे को मारने का तो कोई उपाय नहीं है। लेकिन दूसरे को मारने का विचार किया जा सकता है, वही पाप है।
इसलिए महावीर ने कहा, मारो या विचार करो, बराबर है। इसलिए भाव - हिंसा को भी उतना ही मूल्य दिया, जितना वास्तविक हिंसा को। हम कहेंगे, ज्यादती है। अदालत भाव-हिंसा को नहीं पकड़ती। अगर आप कहें कि मैं एक आदमी को मारने का विचार कर रहा हूं, तो अदालत आपको सजा नहीं दे सकती। आप कहें कि मैंने सपने में एक आदमी की हत्या कर दी है तो अदालत आपको सजा नहीं दे सकती। अपराध जब तक कृत्य न हो तब तक अपराध नहीं है । लेकिन महावीर ने कहा है, पाप और अपराध में यही फर्क है। अदालत तो तभी पकड़ेगी जब कृत्य हो, लेकिन धर्म तभी पकड़ लेता है, जब भाव हो ।
एक आदमी को मैं मारूं, या एक आदमी को मारने का विचार करूं, बराबर पाप हो गया, बराबर । जरा भी फर्क नहीं है। क्यों? क्योंकि वास्तविक मारकर भी मैं मार कहां पाता हूं? वह भी मेरा विचार ही है मारने का । और कल्पना में भी मारकर मैं मारता नहीं, मेरा विचार ही है, लेकिन जो मारने के विचार करता है, वह हिंसक है। कोई मरता नहीं मेरे मारने से, लेकिन मार-मारकर मैं अपने भीतर सड़ता हूं ।
हम कहते हैं आमतौर से कि दूसरे को दुख नहीं देना है, दूसरे को दुख देना हिंसा है, लेकिन यह भी बात महावीर की नहीं हो सकती । क्योंकि दूसरे को मैं दुख दे कैसे सकता हूं? आप महावीर को दुख देकर देखें, तब आपको पता चलेगा। आप लाख उपाय करें, आप
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