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महावीर-वाणी भाग : 2 इसका मतलब यह हुआ कि हम कर्म से निर्मित करते हैं स्वयं को और फिर उस स्वयं से पुनः कर्म को निर्मित करते हैं । इस भांति अगर देखा जाये, जो कि देखने का एक ढंग है, तो फिर आचरण से शुरू करनी पड़ेगी यात्रा । तो फिर हिंसा की जगह अहिंसा चाहिए, क्रोध की जगह अक्रोध चाहिए, लोभ की जगह अलोभ चाहिए। फिर हमें अपने व्यवहार में जो-जो विकृत है, दुखद है, स्वंय से दूर ले जानेवाला है, उस सबको काटकर उसकी स्थापना करनी चाहिए जो निकट है, आत्मीय है, भीतर स्वयं के पास ले आनेवाला है । नीति की समस्त दृष्टि यही है।
लेकिन, जो विपरीत हैं इस विचार के, उनका कहना है कि वह जो हमारा आचरण है वह हमारी आत्मा का निर्माण नहीं है। बल्कि, हमारी जो आत्मा है, केवल उसकी अभिव्यक्ति है।
इसे थोड़ा समझ लें।
हम जो करते हैं, उससे हम निर्मित नहीं होते, हम जो हैं, उससे ही हमारा कर्म निकलता है । मैं चोरी करता हूं, इससे चोर आत्मा निर्मित नहीं होती, मेरे पास चोर आत्मा है, इसलिए मैं चोरी करता हूं। अगर मेरे पास चोर आत्मा नहीं है तो मैं चोरी कर ही नहीं सकूँगा । कर्म आयेगा कहां से? कर्म मुझसे आता है । मेरे भीतर जो छिपा है, वही आता है । एक वृक्ष में कड़वे फल लगते हैं, ये कड़वे फल वृक्ष की कड़वी आत्मा का निर्माण नहीं करते, वृक्ष के पास कड़वा बीज है, इसलिए कड़वे फल लगते हैं । व्यवहार हमारा फल है। हम जो भीतर हैं वह बाहर निकल आता है । लेकिन जो बाहर निकलता है, उससे हमारा भीतर निर्मित नहीं होता । भीतर तो हम पहले से ही मौजूद हैं। जो बाहर होता है वह हमारे भीतर का प्रतिफलन है। ___ इसलिए दूसरा अंतसवादी वर्ग है, जिसका कहना है, जब तक भीतरी चेतना न बदल जाये, बाहर का कर्म बदल नहीं सकता । हम सिर्फ धोखा दे सकते हैं। हम इतना बड़ा भी धोखा दे सकते हैं कि हिंसा की जगह अहिंसा का व्यवहार करने लगें । लेकिन, अन्तर नहीं पड़ेगा। हमारी अहिंसा में भी हमारी हिंसा की वृत्ति मौजूद रहेगी। और हम यह भी कर सकते हैं कि क्रोध की जगह हम क्षमा और शांति को ग्रहण कर लें, लेकिन हमारी शांति और क्षमा की पर्त के नीचे क्रोध की आग जलती रहेगी। इसलिए बहुत बार ऐसा दिखायी पड़ता है कि जिस आदमी को हम कहते हैं-कभी क्रोध नहीं करता, वह सिर्फ क्रोध का एक उबलता हुआ लावा, एक ज्वालामुखी मालूम पड़ता है । करता कभी नहीं, लेकिन भरा सदा रहता है। साधुओं में, संन्यासियों में, निरन्तर ऐसे लोग मिल जायेंगे जो बाहर से सब तरफ से अपने को रोके खड़े हैं, लेकिन भीतर बांध तैयार है जो किसी भी समय दीवार तोड़कर बहने को उत्सुक है, और जो बहता है नये-नये मार्गों से। .. हमने, सबने सुन रखा है दुर्वासा और इस तरह के ऋषियों के बाबत, जो क्षुद्रतम बात पर पागल हो सकते हैं, क्रोध की आग बन जाते हैं। क्या होगा दुर्वासा के जीवन में ? हुआ क्या होगा?
अंतस नहीं बदला है, आचरण बदल डाला है। अंतस से लपटें निकल रही हैं और आचरण को शीतल कर लिया है। वे लपटें उबल रही हैं भीतर । वह कोई भी बहाना पाकर बाहर निकल जाती हैं। कोई भी मार्ग उनके लिए यात्रा-पथ बन जाता है। जो आदमी इस दूसरे विचार दृष्टि से आचरण को बदलेगा वह दमन में पड़ जायेगा।
ये दो विचार-दृष्टियां हैं। लेकिन, महावीर की विचार-दृष्टि दोनों में से कोई भी नहीं है । महावीर या बुद्ध या कृष्ण जैसे लोग मनुष्य को उसकी समग्रता में देखते हैं, इंटिग्रेटेड। हम आदमी को तोड़कर देखते हैं, तोड़कर देखना हमारी विधि है । इसलिए हम अकसर पूछते हैं कि अण्डा पहले या मुर्गी? प्रश्न बिलकुल सार्थक मालूम पड़ता है और लोग जवाब देने की कोशिश भी करते हैं। कुछ लोग हैं, जो कहते हैं, मुर्गी पहले, क्योंकि बिना मुर्गी के अण्डा हो कैसे सकेगा? और कुछ लोग हैं जो उतनी ही तर्कशीलता से कहते हैं कि अण्डा
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