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और जिनशेखरसूरि और जिनदत्तसूरि के परस्पर में खूब क्लेश चलता था। ऐसी स्थिति में जिनशेखरसूरि खरतर शब्द को गच्छ के रुप में मान ले या लिख दे यह सर्वथा असम्भव है। उन्होंने तो अपने गच्छ का नाम ही रुद्रपाली गच्छ रक्खा था। इस विषय में विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी का उल्लेख हम उपर लिख आए हैं। अतः इस लेख के लिए अब हम दावे के साथ यह निःशंकतया कह सकते हैं कि उक्त ११४७ सम्वत् का शिलालेख किसी खरतराऽनुयायी ने जाली (कल्पित) छपा दिया है, नहीं तो यदि खरतर भाई आज भी उस मूर्ति का दर्शन करवा दें तो इतिहास पर अच्छा प्रकाश पड़ सकता है।
भला ! यह समझ में नहीं आता है कि खरतर लोग खरतर शब्द को प्राचीन बनाने में इतना आकाश पाताल एक न कर यदि अर्वाचीन ही मान लें तो क्या हर्ज है?
जिनदत्तसूरि के पहले खरतर शब्द इनके किन्हीं आचार्यों ने नहीं माना था। विक्रम की सोलहवीं शताब्दी का शिलालेख हम पूर्व लिख आये हैं। वहाँ तक तो खरतरगच्छ मंडन जिनदत्तसूरि को ही लिखा मिलता है। इतना ही क्यों पर उसी खण्ड के लेखांक २३८५ में तो जिनदत्तसूरि को खरतरगच्छवतंस भी लिखा है, अतः खरतरमत के आदि पुरुष जिनदत्तसूरि ही थे। पर विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी में तपागच्छ और खरतरों के आपस में वाद-विवाद होने से खरतरों ने देखा कि जिनेश्वरसूरि के लिये पाटण जाने का तो प्रमाण मिलता ही है इसके साथ शास्त्रार्थ की विजय में 'खरतर बिरुद' की कल्पना कर ली जाय तो नौ अंग वृत्तिकार अभयदेवसूरि भी खरतर गच्छ में माने जायेंगे और इनकी बनाई नौअंग की टीका सर्वमान्य है। अतः सर्व गच्छ हमारे आधीन रहेंगे। बस इसी हेतु से इन लोगों ने कल्पित ढांचा खड़ा कर दिया, पर अन्त में वह कहा तक सच्चा रह सकता है। जब सत्य की शोध की जाती है तो असत्य की कलई खुल ही जाती
१. श्रीमान् अगरचन्दजी नाहटा बीकानेर वालों द्वारा मालूम हुआ कि वि. सं. ११४७ वाली
मूर्ति पर का लेख दब गया है। अहा-क्या बात है-आठ सौ वर्षों का लेख लेते समय तक तो स्पष्ट बंचता था बाद केवल ३-४ वर्षों में ही दब गया, यह आश्चर्य की बात है। नाहटाजी ने भीनासर में भी वि. सं. ११८१ की मूर्ति पर शिलालेख में 'खरतर गच्छ' का नाम बतलाया है। इसी की शोध के लिये एक आदमी भेजा गया, पर वह लेख स्पष्ट नहीं बंचता है, केवल अनुमान से ही ११८१ मान लिया है। खैर इसी प्रकार बारहवीं शताब्दी का यह हाल है तब हम चाहते हैं जिनेश्वरसूरि, बुद्धिसागर और अभयदेवसूरि के समय के प्रमाण.....