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है पर नये मत में यह एक नयी प्रथा कर डाली है कि तीसरा आवश्यक की मुँहपत्ति का आदेश मांगते हैं।
३. वंदितुसूत्र में 'तस्स धम्मस्स केवलि पन्नत्तस्स' यह पाठ प्रकट बोलने का है पर खरतर इस पाठ को स्पष्ट बोलने की मनाई करते हैं और धीरे से चुपचाप बोलते हैं।
४. सुबह के चैत्यवंदन और प्रतिक्रमण के बीच स्वाध्याय करने का विधान होने पर खरतर उस जगह स्वाध्याय नहीं करते हैं।
५. प्रतिक्रमण के अन्दर 'अढाईजेसुदीवसमुद्देसु' कहने का विधान होने पर भी कई खरतर इस पाठ को नहीं कहते हैं।
६. क्षुद्रोपद्रव का काउस्सग्ग और इसके साथ में चैत्यवंदन का विधान नहीं है वह तो खरतर करते हैं और दुःखक्खओ कम्मक्खओ का विधान होने पर भी वह नहीं करते हैं।
७. दुःखक्खओ कम्मक्खओ का काउस्सग्ग के बाद लघुशान्ति कहने की परम्परा है, खरतर नहीं कहते हैं पर उसको ही आगे चलकर कहते हैं।
८. प्रतिक्रमण में किसी आचार्य का काउस्सग्ग करने का विधान नहीं है तब खरतर अपने आचार्यों के काउस्सग्ग करते हैं फिर भी गणधर सौधर्म और जम्बु केवलि जैसे आचार्यों को तो वे भूल ही जाते हैं।
९. पक्खी, चौमासी और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण के देववंदन में जयतिहण स्तोत्र जो आचार्य अभयदेवसूरि ने कारणवसात् बनाया था, चैत्यवंदन किया जाता
है जिसमें :
तइ समरंत लहंति झत्ति वर पुत्तकलत्तइ, धण्णसुवण्णहिरणपुण्ण जण भुंजई रज्जइ। पिक्खइ मुक्ख असंखसुक्ख तुह पास पसाइण,
इअ तिहुअणवरकप्परुक्ख सुक्खइकुण महजिण ॥ निर्वृत्ति भाव से प्रतिक्रमण में ऐसे श्लोकों को कहना एक विचारणीय विषय
६. असठ आचरण १. जिस आचरण को असठ भावों से बनाया है और सब लोगों ने उसको स्वीकार किया है वह आचरण सकल श्रीसंघ को मानने योग्य है, जैसे सिद्धाणं बुद्धाणं के मूल दो श्लोक हैं, अभी पांच श्लोक कहे जाते हैं, जयवीयराय के दो श्लोक हैं, अभी पांच श्लोक कहे जाते हैं पर खरतर सिद्धाणं बुद्धाणं के तो पांच