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१. खरतरों की एक शाखा रुद्रपाली कहलाती है, उसके आचार्य संघतिलकसूरि अपने दर्शनसप्ततिका नामक ग्रन्थ में लिखते हैं कि जिनेश्वरसूरि पाटण गये, वहा उनको ठहरने के लिए स्थान नहीं मिला। तब राज पुरोहित सोमेश्वर ने कोशिश कर राजा दुर्लभ से थोड़ी सी भूमि प्राप्त की और जिनेश्वरसूरि के लिए नया उपाश्रय बनाया, जिसमें जिनेश्वरसूरि ने चातुर्मास किया। बाद चातुर्मास के धारा नगरी की ओर विहार कर दिया। आगे और देखिये
२. राजगच्छीय आचार्य प्रभाचन्द्रसूरि ने प्रभाविकचरित्र में अभयदेवसूरि के प्रबन्ध में जिनेश्वरसूरि के विषय में यही लिखा है कि वे खुद राजसभा में नहीं गये परन्तु राजपुरोहित सोमेश्वर ने राजा दुर्लभ से भूमिदान लेकर जिनेश्वरसूरि ने चातुर्मास किया बाद धारा नगरी की ओर प्रस्थान कर दिया।
इससे पाया जाता है कि जिनेश्वरसूरि ने वसतिवास की ओट में आधाकर्मी मकान में ठहर कर अपने और अपनी परम्परा के लिए सावद्य एवं वज्रपाप का रास्ता खोल दिया था।
उपरोक्त दोनों प्रमाणों से यह स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि जिनेश्वरसूरि पाटण गये थे पर वे न तो गये थे राजसभा में न हुआ था चैत्यवासियों के साथ शास्त्रार्थ
और न राजादुर्लभ ने जिनेश्वरसूरि को खर-तर बिरुद ही दिया था केवल राजपुरोहित सोमेश्वर ने राजसभा में जाकर जिनेश्वरसूरि के ठहरने के लिए कुछ भूमि प्राप्त कर नया मकान बनवाया जिसमें जिनेश्वरसूरि ने चातुर्मास किया था।
वास्तव में बात यह बनी थी कि किसी समय जिनेश्वरसूरि बुद्धिसागरसूरि पाटण गये थे, वहां घर घर फिरने पर भी उनको ठहरने को स्थान नहीं मिला। कारण, पाटण में उस समय चैत्यवासियों का साम्राज्य बरत रहा था। इसका कारण यह था कि आचार्य शीलगुणसूरि की कृपा से राजा वनराज चावडा ने पाटण बसाई थी। उसी दिन से चैत्यवासियों ने राजा से यह मंजूर करवा लिया था कि पाटण में सिवाय चैत्यवासियों के श्वेताम्बर साधु ठहर नहीं सकेगा। यही कारण था कि जिनेश्वरसूरि को ठहरने को स्थान नहीं मिला। इस हालत में फिरते-फिरते वे सोमेश्वर पुरोहित के मकान पर गये। जिनेश्वर और बुद्धिसागर ये दोनों जाति के ब्राह्मण थे जिसका परिचय कराने पर पुरोहित ने अपना मकान उन दोनों साधुओं को ठहरने के लिये दिया। यह खबर जब चैत्यवासियों को मिली तो उन्होंने अपने आदमियों को भेजा। आदमियों ने जाकर कहा कि तुमको नगर में ठहरने का अधिकार नहीं है। अतः नगर से चले जाओ, इस पर पुरोहित ने कहा कि अभी तो ठहरने दो बाद में राजा के पास जाकर इसका निर्णय कर लूंगा। इधर तो