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ही प्रचलित हो गया था। इस हालत में भी रुद्रपाली शाखा वालों ने खरतर शब्द का प्रयोग नहीं किया। इसका कारण शायद यह हो सकता है कि खरतर शब्द जिनदत्तसूरि से उत्पन्न हुआ और बाद में भी जिनदत्तसूरि की शाखा ने ही खरतर शब्द को अपनाया है। तब रुद्रपाली शाखा वाले खरतर नाम लेने में भी महापाप समझते होंगे। कारण, ये दोनों शाखायें आपस के द्वेष के कारण अलग हुई थीं। अतः खरतर शब्द की उत्पत्ति जिनेश्वरसूरि से नहीं पर जिनदत्त से हुई है।
यदि जिनेश्वरसूरि एवं अभयदेवसूरि खरतर होते तो जिनदत्त और जिनशेखर के आपस में द्वेष होते हुये भी खरतर शब्द को समान मान देते, जैसे तपागच्छ में विजय और सागर शाखा अलग होने पर भी तपागच्छ के लिये दोनों शाखाओं को एकसा मान है। अतः न तो जिनेश्वरसूरि खरतर थे और न अभयदेवसूरि ही खर-तर थे। पर खरतर शब्द की उत्पत्ति हुई है जिनदत्तसूरि की खर प्रकृति से । जिसको जिनदत्तसूरि अपना अपमान समझते थे। पर दिन निकलने से जिनकुशलसूरि के समय से खरतर शब्द गच्छ के साथ चिपक गया है। जैसे लोहे के साथ कीटा चिपक जाता है। खैर यह तो हुई अभयदेवसूरि की बात, अब आगे कुछ और बात कहों ।
जिनवल्लभसूरि की बातें जिनवल्लभसूरि के लिये खरतर लोग जानते तो हैं कि कुर्चपुरागच्छ के जिनेश्वरसूरि ने इनको मोल खरीद कर शिष्य बनाया, जिस गुरु ने वल्लभ को लिखा पढ़ा कर तैयार किया उनसे ही क्रोध क्लेश कर वहां से निकल गया और
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नवांगवृत्तिकृत् पदेऽभयदेवप्रभुर्गुणैः । तस्य स्तम्भनकाधीश भाविश्चक्रे समं गुणैः ॥ १३ ॥ श्राद्धप्रतिबोधप्रवणस्तत् पदे जिनवल्लभः। सूरिवल्लभ तां भेजे त्रिदशानां नृणामपि ॥ १४॥ ततः श्रीरूद्रपल्लियगच्छसंज्ञा लसद्यशाः । नृपशेखरतां भेजे सूरीन्द्रो जिनशेखर ॥ २५ ॥
___ "रूद्रपाली जयानन्दसूरि कृत आचारदिनकर टीका वि. १४५८" कुर्चपुरीयगच्छवासी चैत्यनिवासी जिनेश्वर इति नाम्ना सूरिरासीत् तेन सूरिणां द्रविणदानेन पञ्चशती द्रम्म द्रव्यव्यये जिनवल्लभनामा श्रावकपुत्र शिष्य कृतः।
प्रवचन परीक्षा, पृष्ठ २३१ यही बात खरतरों के गणधर सार्द्धशतक ग्रंथ में लिखी है। "द्रम्मशतपंचकं तस्य हस्ते प्रक्षिप्य क्षिप्तं दिदीक्षे" अर्थात् वल्लभ की माता को पांचसौ द्रम्म ( उस समय का चलनी सिक्का) देकर जिनवल्लभ को मूल्य खरीद कर दीक्षा दी।
गणधर सार्द्धशतक वृत्ति