Book Title: Khartar Gaccha Ka Itihas
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpmala

View full book text
Previous | Next

Page 152
________________ १५२ ही प्रचलित हो गया था। इस हालत में भी रुद्रपाली शाखा वालों ने खरतर शब्द का प्रयोग नहीं किया। इसका कारण शायद यह हो सकता है कि खरतर शब्द जिनदत्तसूरि से उत्पन्न हुआ और बाद में भी जिनदत्तसूरि की शाखा ने ही खरतर शब्द को अपनाया है। तब रुद्रपाली शाखा वाले खरतर नाम लेने में भी महापाप समझते होंगे। कारण, ये दोनों शाखायें आपस के द्वेष के कारण अलग हुई थीं। अतः खरतर शब्द की उत्पत्ति जिनेश्वरसूरि से नहीं पर जिनदत्त से हुई है। यदि जिनेश्वरसूरि एवं अभयदेवसूरि खरतर होते तो जिनदत्त और जिनशेखर के आपस में द्वेष होते हुये भी खरतर शब्द को समान मान देते, जैसे तपागच्छ में विजय और सागर शाखा अलग होने पर भी तपागच्छ के लिये दोनों शाखाओं को एकसा मान है। अतः न तो जिनेश्वरसूरि खरतर थे और न अभयदेवसूरि ही खर-तर थे। पर खरतर शब्द की उत्पत्ति हुई है जिनदत्तसूरि की खर प्रकृति से । जिसको जिनदत्तसूरि अपना अपमान समझते थे। पर दिन निकलने से जिनकुशलसूरि के समय से खरतर शब्द गच्छ के साथ चिपक गया है। जैसे लोहे के साथ कीटा चिपक जाता है। खैर यह तो हुई अभयदेवसूरि की बात, अब आगे कुछ और बात कहों । जिनवल्लभसूरि की बातें जिनवल्लभसूरि के लिये खरतर लोग जानते तो हैं कि कुर्चपुरागच्छ के जिनेश्वरसूरि ने इनको मोल खरीद कर शिष्य बनाया, जिस गुरु ने वल्लभ को लिखा पढ़ा कर तैयार किया उनसे ही क्रोध क्लेश कर वहां से निकल गया और २. नवांगवृत्तिकृत् पदेऽभयदेवप्रभुर्गुणैः । तस्य स्तम्भनकाधीश भाविश्चक्रे समं गुणैः ॥ १३ ॥ श्राद्धप्रतिबोधप्रवणस्तत् पदे जिनवल्लभः। सूरिवल्लभ तां भेजे त्रिदशानां नृणामपि ॥ १४॥ ततः श्रीरूद्रपल्लियगच्छसंज्ञा लसद्यशाः । नृपशेखरतां भेजे सूरीन्द्रो जिनशेखर ॥ २५ ॥ ___ "रूद्रपाली जयानन्दसूरि कृत आचारदिनकर टीका वि. १४५८" कुर्चपुरीयगच्छवासी चैत्यनिवासी जिनेश्वर इति नाम्ना सूरिरासीत् तेन सूरिणां द्रविणदानेन पञ्चशती द्रम्म द्रव्यव्यये जिनवल्लभनामा श्रावकपुत्र शिष्य कृतः। प्रवचन परीक्षा, पृष्ठ २३१ यही बात खरतरों के गणधर सार्द्धशतक ग्रंथ में लिखी है। "द्रम्मशतपंचकं तस्य हस्ते प्रक्षिप्य क्षिप्तं दिदीक्षे" अर्थात् वल्लभ की माता को पांचसौ द्रम्म ( उस समय का चलनी सिक्का) देकर जिनवल्लभ को मूल्य खरीद कर दीक्षा दी। गणधर सार्द्धशतक वृत्ति

Loading...

Page Navigation
1 ... 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256