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(७) अंचलगच्छीय आचार्य मेरुतुंगसूरिने अपने शतपदी ग्रंथ के १४९ पृष्ठ पर जिनदत्तसूरि की नवीन आचरणा के बारे में पच्चीस बातें विस्तार से लिखी हैं। पर मैं उनसे कतिपय बातें पाठकों की जानकारी के लिए यहां उद्धृत कर देता हुं। वे लिखते हैं कि जिनदत्तसूरि
१. श्राविकाने पूजा नो निषध कर्यो । २. लवण (निमक) जल, अग्नि में नोखवू ठेराव्यो।
३. देरासर में जुवान वेश्या नहीं नचावी किन्तु जे नानी के वृद्ध वेश्या होय ते नचाववी एवी देशना करी।
४. गोत्रदेवी तथा क्षेत्रपालादिकनी पूजाथी सम्यक्त्व भागे नहीं एम ठेराव्यु । ५. अमे ज युगप्रधान छीए एम मनावा मांड्युं ।
६. वली एवी देशना करवा मांडी के एक साधारण खातानुं बाजोठ (पेटी) राखg, तेने आचार्यनो हुकम लइ उघाडवू । तेमांना पैसामांथी आचार्यादिकना अग्निसंस्कार स्थाने स्तूपादिक कराववी तथा ज्यां यात्रा अने उजणीओ करवी।
७. आचार्योनी मूर्तियों कराववी।
८. चक्रेश्वरीनी स्तुति में जिनदत्तसूरि ए कां छे के विधि 'मार्गना शत्रुओंना गला कापनार चक्रेश्वरी मोक्षार्थी जनना विघ्न निवारो।
९. श्रावकने तीन वार सामायिक उच्चराववानी प्ररुपणा करवा मांडी।
१०. अजमेरमा पार्श्वनाथना देरामां तथा पोसहशालामां सरस्वतीनी प्रतिमा थपावी । एज देहरामां जेमने मांस पण चढ़े छे एवी शीतला वगेरा देवियों थपावी।
११. ऐरावण समारुढ़ इत्यादि बली उडावी दिक्पालोंनी पूजा करवाना श्लोको तथा "सद्वेद्यां भद्रपीठे" इत्यादि काव्यों चैत्यवासी वादिवैताल शान्तिसूरिना करेल होवाथी सुविहितो ए निषेध कर्या छतां जिनदत्तसूरिए चलाव्या।
इनके अलावा और भी कई बातों को रद्दो बदल कर स्वच्छन्दता पूर्वक आचरण प्रचलित कर डाली। क्या ऐसे भी युगप्रधान हो सकते है?
इस विषय में मैं अब अधिक लिखना ठीक नहीं समझता हूँ। कारण एक तो ग्रन्थ बढ़ जाने का भय है, दूसरा खरतरों में सत्य स्वीकार करने की बुद्धि नहीं है। वे तो उल्टा लेखक उपर एकदम टूट पड़ते हैं। खैर ! फिर भी मैं तो उनका उपकार ही समझता हूं कि उन्होंने मुझे इस लेख के लिखने की प्रेरणा की और विश्वास है आगे भी इस प्रकार करते रहेंगे ताकि मुझे प्राचीन ग्रन्थ देखने का अवसर
१. जिनवल्लभसूरिने अपना विधिमार्ग मत अलग स्थापित किया।