________________
२२२
दीवार नंबर ५ कई खरतर भक्त यह कह उठते हैं कि कई ब्राह्मणोंने एक मृत गाय को जिनदत्तसूरि के मकान में डलवा दी। तब जिनदत्तसूरिने उस मृत गाय को ब्राह्मणों के शिवालय में फिंकवा दी। इस चमत्कार को देख वे ब्राह्मण लोग दादाजी के भक्त बन गए। इत्यादि
समीक्षा-अव्वल तो इस बात के लिये खरतरों के पास कोई भी प्रामाणिक नहीं है तब प्रमाणशून्य ऐसी मिथ्या गप्पें हांकने में क्या फायदा है? और ऐसी कल्पित बातों से जिनदत्तसूरि की तारीफ नहीं प्रत्युत हांसी होती है।
वास्तव में ८४ गच्छों में एक वायट नाम का गच्छ हैं, उसमें कई जिनदत्तसूरि नाम के आचार्य हुए हैं। यह गायवाली घटना एक बार उन वायट गच्छाचार्यों के साथ घटी थी। खरतरोंने वायट गच्छीय जिनदत्तसूरि व जीवदेवसूरि की घटना अपने जिनदत्तसूरि के साथ लिख मारी है।
प्रभाविक चरित्र जो प्रामाणिक आचार्य प्रभावचन्द्रसूरिने विक्रम की चौदहवीं शताब्दी में बनाया है और वह मुद्रित भी हो चुका है उसमें निम्नलिखित वर्णन है। पाठक इसे पढ़ सत्यासत्य का स्वयं विवेचन कर लें।
अन्यदा बटवः पाप-पटवः कटवो गिरा । आलोच्य सूरभिं कांचि-दंचन्मृत्युदशास्थिताम् ॥ १३१ ॥ उत्पाट्योत्पाट्य चरणान्निशायां तां भृशं कृशाम् । श्रीमहावीरचैत्यान्तस्तदा प्रावेशयन् हटात् ॥ १३२ ॥ युग्मम् गतप्राणां च तां मत्वा बहिः स्थित्वाऽतिहर्षतः । ते प्राहुरत्र विज्ञेयं जैनानां वैभवं महत् ॥ १३३ ॥ वीक्ष्य प्रातर्विनोदोऽयं श्वेताम्बरविडम्बकः । इत्थञ्च कौतुकाविष्टास्तस्थुर्देवकुलादिके ॥ १३४ ॥ ब्राह्म मुहूर्ते चोत्थाय यतयो यावदङ्गणे । पश्यन्ति तां मृतां चेतस्यकस्माद्विस्मयावहाम् ॥ १३५ ॥ निवेदिते गुरुणाञ्च चित्रेऽस्मिन्नरतिप्रदे । अचिन्त्यशक्तयस्ते च नाऽक्षुभ्यन् सिंहसन्निभाः ॥ १३६ ॥ मुनीन् मुक्त्वाङ्गरक्षार्थं मठान्तः पट्टसंन्निधौ । अमानुषप्रचारेऽत्र ध्यानं भेजुः स्वयं शुभम् ॥ १३७ ॥ अन्तर्मुहूर्त्तमात्रेण सा धेनुः स्वयमुत्थिता ।