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गणधर सार्द्धशतक की बृहद्वृत्ति में जिनदत्तसूरि का संपूर्ण जीवन लिखा है। जिस में छोटी से छोटी बातों का उल्लेख है पर इस बात की गंध तक भी नहीं है कि दादाजीने अमावस की पूनम कर बतलाई थी। इस हालत में खरतरलोग जैनाचार्यों को ऐन्द्रजालिक बनाके उनकी हंसी करवाने में क्या फायदा समझ बैठे हैं ? यह समझ में नहीं आता है कि यदि खरतरलोगों के पास कोई प्राचीन प्रमाण हैं तो वे उन्हें प्रसिद्ध करा के आचार्यों को ऐन्द्रजालिक होना साबित क्यों नहीं करते?
दीवार नंबर १३ खरतरगच्छ पट्टावलि में लिखा हैं कि आचार्य जिनचंद्रसूरिने दिल्ली के बादशाह को बहुत चमत्कार बतलाकर अपना भक्त बनाया, बाद वि. सं. १२२३ में आप का देहान्त भी दिल्ली में ही हुआ।
समीक्षा- कोई भी जैनाचार्य इस प्रकार बादशाह वगैरह को अपना भक्त बनावे, इसमें केवल खरतरों को ही नहीं पर समग्र जैन समाज को खुशी मनाने की बात है पर वह बात तो सत्य होनी चाहिये न? हमारे खरतर भाईयों को तो इस बात का तनक भी ज्ञान नहीं हैं कि दिल्ही पर बादशाह का राज कब हुआ
और जिनचन्द्रसूरि कब हुए थे? जरा इतिहास के पृष्ठ उथल कर देखिये-विक्रम सं. १२४९ तक तो दिल्ही पर हिन्दूसम्राट पृथ्वीराज चौहान का राज था, बाद दिल्ही का राज बादशाह के अधिकार में गया हैं तब जिनचन्द्रसूरि का देहान्त १२२३ में ही हो गया था, फिर समझ में नहीं आता हैं कि जिनचन्द्रसूरि दिल्ली के बादशाह को कैसे चमत्कार बतला कर अपना भक्त बनाया होगा? शायद जिनचन्द्रसूरि काल कर भूत, पीर या देवता हो कर बादशाह को चमत्कार बतला कर अपना भक्त बनाया हो तो यह बात ही एक दूसरी है। पर खरतर लोग इस प्रकार की अनर्गल बाते कर अपने आचार्यों की क्यों हाँसी करवाते हैं, ऐसे लोगों को भक्त कहना चाहीये या मश्करा?
दीवार नंबर १४ कई खरतर लोग कहते हैं कि बादशाह अकबर की राजसभा में खरतराचार्य जिनचन्द्रसूरिने मुल्लाओं की टोपी आकाश में उड़ा दी थी और बाद में ओंघा से पीट पीट कर उस टोपी को उतारी। इत्यादि।
समीक्षा-यह भी उसी सिग्गे की और बे शिर पाँव की गप्प है कि जो उपर लिखी उक्त गप्पों से घनिष्ट सम्बन्ध रखती है।
_ वि. सं. १६३९ में बादशाह अकबर को जगद्गुरु आचार्य श्री विजयहीरसूरिने प्रतिबोध कर जैनधर्म का प्रेमी बनाया। बाद विजयहीरसूरि के शिष्य शांतिचन्द्र,