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"अइच्चणागा" अर्थात् आदित्यनाग गोत्र लिखा है फिर समझ में नहीं आता है कि जिनदत्तसूरि का जीवन लिखनेवाले आधुनिक लोगोंने यह क्यों लिख मारा कि जिनदत्तसूरिने चोरडिया जाति बनाई ? जहां चोरड़ियों के घर हैं वहां वे सबके सब आज पर्यन्त उपकेशगच्छ के श्रावक और उपकेशगच्छ के उपाश्रय में बैठनेवाले हैं और उपकेशगच्छ के महात्मा ही इनकी वंशावलियाँ लिखते हैं।
दूसरा आचार्य जिनदत्तसूरि का जीवन गणधर सार्द्धशतक की बृहद् वृत्ति में लिखा है परन्तु उसमें इस बात की गन्ध तक भी नहीं है कि जिनदत्तसूरिने चोरड़िया जाति एवं सवा लाख नये जैन बनाये थे।
संभव है कइ ग्रामों में खरतरगच्छ के आचार्योंने भ्रमण किया होगा और गुलेच्छा, पारख, सावसुखा आदि जो चोरड़ियों की शाखा हैं उन्होंने अधिक परिचय के कारण खरतरगच्छ की क्रिया कर ली होगी। इससे उनको देख कर आधुनिक यतियोंने यह ढाँचा खड़ा कर दिया होगा। परन्तु चोरडिया किसी भी स्थान पर खरतरों की क्रिया नहीं करते हैं। हां गुलेच्छा, पारख वगैरह चोरड़ियों की शाखा होने पर भी कई स्थानों में खरतरों की क्रिया करते हों और उन्हें खरतर बनाने के लिए "चोरड़ियों को जिनदत्तसूरिने प्रतिबोध दिया" ऐसा लिख देना पड़ा है। जो "मान या न मान मैं तेरा मेहमान' वाली उक्ति को सर्वांश में चरितार्थ कर बतलाई हैं। पर कल्पित बात आखिर कहाँ तक चल सकती है? इस चोरडिया जाति के लिए एक समय अदालती मामला भी चला था और अदालतने मय साबूती के फैसला भी दे दिया था। इतना ही क्यों पर जोधपुर दरबार से इस विषय का परवाना भी कर दिया था। जिसकी नकल में यहां उद्धृत कर देना समुचित समझता
-: नकल :श्रीनाथजी
मोहर छाप श्रीजलंधरनाथजी संघवीजी श्री फतेराजजी लिखावतों गढ़ जोधपुर, जालोर, मेड़ता, नागोर, सोजत, जैतारण, बीलाड़ा, पाली, गोड़वाड़, सीवाना, फलोदी, डिड़वाना, पर्वतसर,
लिखे हैं :__ "तातेड़, बाफना, कर्णाट, बलहरा, मोरक, कुलहट, विरहट, श्री (श्रीमाल, श्रेष्ठि, सहचेती (संचेती), अइचणागा (आदित्यनाग) भुरि, भाद्र, चिंचट, कुमट, डिडु, कनोजिया, लघुश्रेष्ठि."
इनमें जो अइचणाग (आदित्यनाग) मूल गोत्र है। चोरड़िया उसकी शाखा है जो उपर के शिलालेख में बतलाइ गई है।