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अभयदेवसूरि और जिनवल्लभसूरि आदि जो आचार्य हुए और जिन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना भी की, पर किसी स्थान पर उन्होंने खरतर शब्द नहीं लिखा। क्या शास्त्रार्थ के विजयोपलक्ष्य में मिला हुआ बिरुद इतने दिन तक गुप्त रह सकता है? क्या किसी को भी यह खरतर शब्द याद नहीं आया? इतना ही क्यों बल्कि आचार्य अभयदेवसूरि और जिनदत्तसूरि के गुरु जिनवल्लभसूरिने अपने आपको ही नहीं किन्तु वर्धमानसूरि और जिनेश्वरसूरि तक को अपने ग्रंथों में चन्द्रकुलीय लिखा है।
खरतरगच्छीय कई लोगोंने खरतर शब्द को प्राचीन सिद्ध करने के लिए विक्रम की बारहवीं शताब्दी के कई प्रमाण ढूँढ निकाले हैं जो कि जिनदत्तसूरि के साथ संबंध रखनेवाले हैं। किन्तु सांप्रतिक इतिहास-संशोधक लोग तो जिनेश्वरसूरि के समय के प्रमाण चाहते हैं पर खरतरों के पास इनका सर्वथा अभाव ही है। खरतर लोग जिन प्रमाणों को देख फूले नहीं समाते हैं वे प्रमाण जिनेश्वरसूरि को खरतर बनाने में तनिक भी सहायता नहीं देते हैं, अतः खरतरों का कर्तव्य है कि वे या तो अपनी इस भूल को सुधार लें कि वि. सं. १०८० में जिस शास्त्रार्थ का उल्लेख हम और हमारे पूर्वजोंने किया है वह गलत है या इस विषय के विश्वसनीय प्रमाण उपस्थित करें । मैं इस विषय में यहां अधिक लिखना इस कारण ठीक नहीं समझता हूं कि मैंने "खरतरगच्छोत्पत्ति" नामक एक स्वतंत्र पुस्तक इस विषय की प्रकाशित करवा दी है। उसमें अकाट्य ऐतिहासिक और खास खरतरों के ग्रन्थों के ही प्रमाणों से यह सिद्ध कर दिया है कि खरतर शब्द जिनेश्वरसूरि से नहीं पर जिनदत्तसूरि की प्रकृति से ही पैदा हुआ है और यह प्रारंभ में अपमानसूचक होने के कारण खरतरोंने उसे कई वर्षों तक नहीं अपनाया। इसकी साबूती के लिये मैंने खरतराचार्यों के कई शिलालेख भी दिये हैं और बताया हैं कि खरतर शब्द आमतौर पर जिनकुशलसूरि के समय में ही काम में लिया गया है।
यदि किसी भाई को इस बात का निर्णय करना हो तो खरतरगच्छोत्पत्ति नामक पुस्तक को मंगवाकर पढ़ना चाहिए।
दीवार नम्बर ३ कई लोग आचार्य जिनदत्तसूरि को युगप्रधान कहा करते हैं तो क्या आचार्य जिनदत्तसूरि युगप्रधान थे? |
समीक्षा-युगप्रधानों की नामावली में जिनदत्तसूरि का नाम नहीं है, पर गच्छराग के कारण कई लोग अपने अपने आचार्यों को युगप्रधान लिख देते हैं। इस समय युगप्रधान दो कोटि के समझे जाते हैं :
१. नाम युगप्रधान और २. गुण युगप्रधान, यदि जिनदत्तसूरि नाम युगप्रधान