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हार बतलानी उपकेशगच्छवालों की। ऐसा अनूठा न्याय खरतरों के अलावा किस का हो सकता है? शायद ! यति रामलालजी आदि को कोई दूसरा दर्द तो नहीं है क्योंकि बीकानेर में उपकेशगच्छवालों के अधिकार में १४ गवाड़ (मुहल्ले) हैं तब खरतरों के ११ गवाड़ हैं और इन दोनों के आपस में कसाकसी चलती ही रहती है। संभव है इसी कारण खरतर यतियोंने यह युक्ति गढ़ निकाली हो कि खरतर का अर्थ खरा और कवलों का अर्थ हारा हुआ, पर उस समय यतियों को यह भान नहीं रहा कि आगे चल कर मुनि मग्नसागर जैसे खरतर साधु ही हमारी इस कल्पित युक्ति को ठुकरा देंगे। जैसा कि हम पहले लिख आए हैं।
(३) यदि हम मुनि मग्नसागरजी का कहना कुछ देर के लिये मान भी लें तो राजा दुर्लभने तो इतना ही कहा कि - "ऐ आचार्य शास्त्रानुसार खरं बोल्या.' बस, इस शब्द पर ही जिनेश्वरसूरिने खरतर बिरुद मान लिया? यदि हां, तब तो इस बिरुद की क्या कीमत हो सकती है और राजा दुर्लभने तो किसी को कवला कहा ही नहीं फिर खरतर यह कवला शब्द कहां से लाया?
(४) राजा दुर्लभ स्वयं बड़ा भारी विद्वान् था। उस की सभा में अच्छे अच्छे विद्वान् उपस्थित रहते थे। जिनेश्वरसूरि भी विद्वान ही होंगे। फिर कांसीपात्र का ऐसा कौन सा तात्त्विक विषय था? जिसका कि निर्णय राजसभा में करवाने को शास्त्रार्थ करना पड़ा । चैत्यवासीयों का समय विक्रम की पहली-दूसरी शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी का है। क्या इतने दीर्घकालीक अर्से में किसी चैत्यवासीने साधु के लिए कांसीपात्र रखने का कहा हैं ? जो कि जिनेश्वरसूरि को एक साधारण बात के लिए इतना बड़ा भारी शास्त्रार्थ करना पड़ा? इस से मालूम होता है कि या तो जिनेश्वरसूरि कोई साधारण व्यक्ति होंगे या खरतरोंने यह कोई कल्पित ढांचा ही तैयार किया हैं।
(५) जिनवल्लभसूरिने-चित्तौड़ के किले पर महावीर के छ कल्याणक की प्ररुपणा की, यही कारण हैं कि चैत्यवासियोंने जिनवल्लभसूरि को उत्सूत्र प्ररुपक निह्नव घोषित कर दिया और यह बात उपर के लेख से सिद्ध भी होती हैं।
__ वास्तव में न तो दुर्लभराजाने खरतर बिरुद दिया और न खरतरों के पास इस विषय का कोई प्रबल प्रमाण ही हैं। आचार्य जिनदत्तसूरि की प्रकृति खरतर होने के कारण लोग उनको खरतर खरतर कहा करते थे। पहले तो यह शब्द अपमान के रुप में समझा जाता था पर कालान्तर में यह गच्छ के रुप में परिणत
हो गया।
यदि ऐसा न होता तो जिनेश्वरसूरि, बुद्धिसागरसूरि, धनेश्वरसूरि, जिनचन्द्रसूरि,