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है। खैर ! कुछ भी हो हमें तो यहां उद्योतनसूरि द्वारा ८४ आचार्यों से ८४ गच्छ हुए उनका ही निर्णय करना है।
यदि कोई व्यक्ति इधरउधर के नाम लिख कर चौरासी गच्छ और आचार्यों की संख्या पूर्ण कर भी दे तो इस बीसवीं शताब्दी में केवल नाम से ही काम चलने का नहीं है, पर उन नामों के साथ उनकी प्रमाणिकता के लिये भी कुछ लिखना आवश्यक होगा, जैसे कि :- उन ८४ आचार्योंने अपने जीवन में क्या क्या काम किए ? किन किन आचार्योंने क्या क्या ग्रंथ बनाये? किसने कितने मन्दिरों की प्रतिष्ठा करवाई आदि आदि। इस प्रकार उन आचार्य और गच्छों का सत्यत्व दिखाने के लिये कुछ ऐतिहासिक प्रमाणों की भी आवश्यकता है। आशा है, हमारे खरतरगच्छीय विद्वान अपने लेख की सत्यता के लिए ऐसे प्रमाण जनता के सामने जरुर रखेंगे कि जिस से उन पर विश्वास कर उद्योतनसूरि को ८४ गच्छों का स्थापक गुरु मानने को वह तैयार हो जाये।
यदि खरतरों के पास ऐसा कोई प्रमाण नहीं है तो फिर यह कहना कि उद्योतनसूरि ने ८४ शिष्यों का आचार्य पद दिया और उन आचार्यों से ८४ गच्छ हुए यह केवल अरण्यरोदनवत् व्यथा का प्रलाप ही समझना चाहिये ।
दीवार नम्बर २ कई खरतरगच्छवाले यह भी कहते हैं कि वि. सं. १०८० में पाटण के राजा दुर्लभ की राजसभा में आचार्य जिनेश्वरसूरि और चैत्यवासियों के आपस में शास्त्रार्थ हुआ। जिस में जिनेश्वरसूरि को खरा रहने से राजा दुर्लभने खरतर बिरुद दिया और चैत्यवासियों की हार होने से उनको कवला कहा। इत्यादि।
समीक्षा :- इस लेख की प्रामाणिकता के लिये न तो कोई प्रमाण दिया है और न किसी प्राचीन ग्रन्थ में इस बात की गंध तक भी मिलती है। खरतरों की यह एक आदत पड़ गई है कि वे अपने दिल में जो कुछ आता है उसे अडंगबडंग लिख मारते हैं, जैसे कि खरतरगच्छीय यति रामलालजी अपनी "महाजनवंश मुक्तावली' नामक पुस्तक के पृष्ठ १६८ पर उक्त शास्त्रार्थ उपकेश गच्छाचार्यों के साथ होना लिखते हैं और खरतरगच्छीय मुनि मग्नसागरजीने अपनी 'जैनजाति निर्णय समीक्षा" नामक पुस्तक के पृष्ठ ९४ में एक पट्टावलि का आधार लेकर के लिखा है कि :
"३९ तत्पट्टे यशोभद्रसूरि लघु गुरुभाई श्रीनेमिचन्द्रसूरि एहवइ डोकरा आ. गुरुश्री उद्योतनसूरिनी आज्ञा लइ श्रीअंझहारी नगर थकी विहार करतां श्रीगुर्जरइ अणहलपाटणि आवी वर्धमानसूरि स्वर्गे हुआ, तेहना शिष्य श्रीजिनेश्वरसूरि पाटणिराज