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विशेष अन्तर नहीं हैं, पर एक वेली के फल कहे जा सकते हैं।
लो यह हुई जिनवल्लभ की बातें अब आगे चलकर एक दो बातें और भी सुनाइये।
जिनदत्तसूर की बातें। आप चन्द्रकुल के धर्मदेवोपाध्याय के शिष्य एक सोमचन्द्र नाम के साधु थे। आपकी प्रकृति शुरु से ही खरतर थी। आप महत्वाकांक्षी और पदवी पिपास भी थे। आपको दीक्षा लिये २८ वर्ष हो गुजरे थे। पर किसीने एक छोटी बड़ी पदवी भी सोमचन्द्र को नहीं दी; कारण उस समय पदवी प्रदान करने में सबसे पहले योग्यता देखी जाती थी। अतः मुनि सोमचन्द्र को २८ वर्षों में न पण्डितपद, न वाचकपद न उपाध्यायपद न गणिपद मिला, इससे पाठक अनुमान लगा सकते हैं कि सोमचन्द्र की योग्यता कैसी थी? फिर भी आपको इसकी पक्की लगन भी थी तथा आप थे भी इसी फिराक में कि समय पाकर कभी मैं भी पदवीधर बनूं ।
इधर जिनवल्लभसूरि का देहान्त हो चुका था। इनको पदवी देने वाला था देवभद्राचार्य । जिनवल्लभ के देहान्त से आपको बड़ा भारी दुःख हुआ, कारण जैन संघ के बाहर किये हुए जिनवल्लभ को आपने पदवी देकर जो यश (!) प्राप्त किया था उस बात को पूरा ६ मास भी नहीं हुआ कि आपका लगाया हुआ वृक्ष शिशु वय में ही उखड़ पड़ा। अतः जिनवल्लभ के पट्टधर बनाने की आपको पूरी लगन थी।
जिनवल्लभ के पास एक जिनशेखर नाम का साधु रहता था। उसके और देवभद्राचार्य के पहले से ही वैमनस्य हो चुका था। उस लड़ाई के अन्दर देवभद्र ने जिनशेखर को गला घोट कर निकाल दिया था। उसको तो देवभद्र आचार्य पद दे ही कैसे सकता था? और दूसरे के लिये ऐसे काले कर्म किसके थे कि वह उत्सूत्र प्ररुपक जिनवल्लभ का पट्टधर बन इस लोक और परलोक में कुयश का तिलक अपने कपाल पर लगावें । खैर, इस कोशिश में देवभद्र ने दो वर्ष निकाल दिये पर उनके हाथ ऐसा कोई व्यक्ति नहीं लगा कि जिसको जिनवल्लभ का पट्टधर बनाया जा सके। फिर भी देवभद्र ने अपने हाथों से एक उत्सूत्र वादी को सूरि बना कर समाज में फूट के बीज बोये थे। उसको फला फूला देखने की आकांक्षा
१. अपरदिने जिनेश्वरेण साधुविषये किंचित् कलहादिकमयुक्तं कृतं ततो देवभद्राचार्येण गले गृहीत्वा निष्कासितः ।
प्र. प., पृ. २४८