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उत्तर - अरे कहां गज और कहां गीदड़ ? रत्नप्रभसूरि चतुर्दश पूर्वधर' एवं आगमविहारी थे। उनकी बराबरी जिनदत्त जैसे उत्सूत्र प्ररुपक नहीं कर सकते हैं। आगमविहारियों के लिये कल्प नहीं है, वे भविष्य का लाभालाभ देखें वैसा कार्य कर सकते हैं। जैसे कि :
१. भगवान महावीर ने आम सभा में काली रानी को कहा था कि तुम्हारा पुत्र संग्राम में गया था, वहां मर गया यदि कल्प वाले साधु ऐसी बात कह दे तो उसको निशीथ सूत्र में चतुर्मासिक प्रायश्चित बतलाया है।
२. गौतम स्वामि मृगालोढा को देखने गये जिसकी आज्ञा महावीर ने दी थी। यदि कल्प वाले साधु इस प्रकार कहे तो उसे चतुर्मासिक प्रायश्चित आता है। इतना ही क्यों पर इसके लिये आज्ञा देने वाले को भी प्रायश्चित कहा है।
३. केशीश्रमणाचार्य ने प्रदेशी राजा को कहा कि “प्रदेशी तू मुंड है, तुच्छ है।" यदि कल्प वाला साधु गृहस्थ को इस प्रकार हलके शब्द कहे तो निशीथ सूत्र में चतुर्मासिक प्रायश्चित होता है।
४. भगवान महावीर उदाई राजा को दीक्षा देने को गये तब रात्रि में विहार किया था। यदि कल्पवाले साधु रात्रि में विहार करे तो उसे प्रायश्चित बतलाया है।
वष्णुकुमार मुनि ने निमूची को मार डाला वैसा कल्पवाले मुनि नहीं कर सकते हैं। करें तो दोषित कहा है।
५. भद्रबाहु स्वामि ने राजा को भविष्य का निमित कहा वैसे दूसरा कल्प वाला साधु नहीं कह सकता है।
अतः रत्नप्रभसूरि का उदाहरण जिनदत्तसूरि के लिये घटित नहीं हो सकता है। कारण, जिनदत्तसूरि अल्पज्ञ था और अपनी अल्पज्ञता के कारण ही उसने स्त्री जिनपूजा निषेध कर उत्सूत्र की प्ररुपणा की थी।
आचार्य रत्नप्रभसूरि ने तो जिस कल्प वृक्ष को रोपा था वह आज संसार में फला फूला और जैन धर्म को जीवित रक्खा है। पर जिनदत्तसूरिने तो समाज में फूट डाल क्लेश के बीज बोये वे आज भी समाज में कांटा खीला की भांति खटक रहे हैं। ऐसे व्यक्ति के लिये रत्नप्रभसूरि का उदाहरण घटाया जा सकता है? नहीं ! कदापि नहीं !! हर्गिज नहीं !!! १. क्रमेण द्वादशाङ्गी चतुर्दशपूर्वी बभूव गुरुणा स्वपदे स्थापितः।
प. स. उपदेशगच्छ पट्टावली, पृ. १८४ अर्थात् श्री रत्नप्रभसूरि द्वादशांगी एवं चौदह पूर्व के ज्ञाता थे।