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नेक सलाह
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"क्या मेरा यह खयाल ठीक है कि बिना ही शरण मुनि ज्ञानसुन्दरजी की छेड़छाड़ कर हमारे खरतर लोग बड़ी भारी भूल करते हैं, क्योंकि इनके न तो कोई आगे है और न कोई पीछे। इनका डङ्का चारों ओर बज रहा है। सत्य का संशोधन करने की इनकी शुरु से आदत पड़ी हुई है। एवं सत्य कहने में व लिखने में यह किसी की भी खुशामदी नहीं रखते हैं। इस बात की भी इनको परवाह नहीं कि कोई इनको सच्चा साधु मानें या कोई ढोंगी, व्यभिचारी, दोषी, कलंकित वेषधारी, यति या गृहस्थ ही क्यों माने? इन्हें इसका भी भय नहीं है कि कोई असभ्य शब्दों में आक्षेप कर इन पर कलंक ही क्यों न लगावें? ये वीर इन सब बातों पर लक्ष्य नहीं देता हुआ अपनी धून में काम करता ही रहता हैं। पर खरतरगच्छवाले तो बहुत परिवारी है। बड़ी दुकान में घाटा नफा भी उसी प्रमाण से होता है, अतः क्या खरतरवाले आज भूल गए हैं कि एक खरतर साधु को खरतरों के उपाश्रय में साध्वी के साथ मैथुन क्रिया करते हुए को खास खरतरों की साध्वीने ही रात्रि में पकड़ा था और वह साध्वी आज भी विद्यमान है। कइ खरतर साधुओंने तीर्थो पर इसी विडम्बना के कारण जूते भी खायें हैं, और भी इनकी व्यभिचार लीला से ओतप्रोत अनेक पत्र भी कई स्थानों पर पकड़े गए हैं। खरतरों ने केवल साधु ही इस कोटि के नहीं पर इनकी साध्वीयें तो इनसे भी दो कदम आगे बढ़ी हुई है। इतना ही क्यों पर ऐसे कार्यों के लिए तो यदि इन साध्वीयों को उन साधुओं के गुरु कह दिया जाय तो भी कुछ अतिशयोक्ति नहीं है। कारण कई साध्वीयोंने तीर्थों पर अपना उदर रीता किया है तो कई एकोने साधुवेश में गर्भ धारण कर गृहस्थ बन अपने उदर का वजन को हलका कर पुनः खरतरों के शिर पर गुरुत्व धारण किया हैं। कई एक साध्वीएँ गृहस्थों के यहां से सोना चांदी के डिब्बे उठा लाई तो कइ एक साध्वीयों की रकमें गृहस्थ हजम कर गये हैं। १. सं. १९९४ श्रावण सुद ११ पाली में खरतर साध्वी प्रमोद श्री की चेली साध्वी अव्वल
श्री भाग गइ थी, जिसकी एक पत्रिका प्रकाशित हुई, जिसमें खरतरों के साधु साध्वीयों की व्यभिचार लीला का ठीक दिग्दर्शन करवाया हैं। अधिक जानने की अभिलाषा वाला उस पत्रिका को देख कर निर्णय करें । यहाँ तो उस पत्रिका का एक अंश मात्र बतलाया है।