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यह तो हुई जगद्गुरु विजयहीरसूरीश्वरजी की बात, अब थोडी जिनचन्द्रसूरि की बात पाठकों को सुना देता हूँ।
बादशाह अकबर के पास एक कर्मचन्द्र वच्छावत बीकानेर वाला रहता था। बीकानेर के राजा से उनकी खटपट चलती थी। अतः वह बादशाह के पास आ गया था। राजाओं की कई राजरमत एवं पोलीसी हुआ करती हैं। बादशाह कर्मचन्द को अपना कर रखता था और इसमें भी अकबर का कोई स्वार्थ अवश्य था।
बादशाह अकबर की सभा में एवं राज में तपागच्छ का इस प्रकार प्रभाव देख कर्मचन्द ने सोचा कि केवल तपागच्छ वालों ने ही इस प्रकार का यश एवं नाम कमा लिया है तो मैं खरतरगच्छ वालों को बुलाकर थोड़ा बहुत हिस्सा उनको भी दिलाऊं। यद्यपि कर्मचन्द कोरंटगच्छ का श्रावक था पर खरतरों के अधिक परिचय के कारण वह खरतरों का विशेष अनुरागी था।
समय पाकर कर्मचन्द ने बादशाह से अर्ज की कि खरतरगच्छ में भी एक अच्छा फकीर है। उनसे भी आपको मिलना चाहिये। इस पर (बादशाह सबको खुश रखने वाला था) उसने कहा कि बुलाओं मैं उनसे अवश्य मिलूंगा । कर्मचन्द ने बादशाह से जिनचन्द्रसूरि के नाम फरमान लिखवाकर खम्भात भिजवाया। उस समय जिनचन्द्रसूरि खम्भात में थे।
___ कर्मचन्द बड़ा ही बुद्धिमान एक मुत्सद्दी था पर उस समय उसको यह नहीं सूझा कि अभी ऋतु चातुर्मास की है जिनचन्द्रसूरि करीब ८०० मील दूर बैठा है। वह चातुर्मास में ८०० मील कैसे आ सकेगा? यदि आवेगा तो उसके आने से जैन धर्म की प्रभावना होगी या निन्दा? बादशाह अकबर भी कोई भोलाभाला व्यक्ति नहीं है कि चातुर्मास में अपने धर्म के असूलों के भंग करने वालों की इतनी कदर करेगा कि जितनी विजयहीरसूरिकी की थी इत्यादि। पर जो कुछ होता है वह तकदीर के अनुसार ही होता है इसमें कर्मचंद क्या करे ?
___जब बादशाह का फरमान जिनचंद्रसूरि के पास पहुंचा तो उसके हर्ष का ठिकाना न रहा। जिनचंद्र जैसे यति को बादशाह बुलावे फिर तो वह फूला ही क्यों समावे? जिनचन्द्र इस प्रकार का बेभान हो गया कि उसने चातुर्मास के समय न बरसात की परवाह की न नीलन फूलन एवं त्रस जीवों की दया देखी और न जिनाज्ञा एवं परम्परा मर्यादा की आन रक्खी और आषाढ़ शुक्ल ८ को खम्भात से आगरे जाने के लिये विहार का निश्चय कर लिया। इस पर खम्भात के संघ ने एकत्र होकर दुःख के साथ बड़ा ही अफसोस किया कि जिनचन्द्रसूरि इस प्रकार चातुर्मास में विहार को उद्यत हुये हैं यह एक आश्चर्य एवं दुःख की बात है। अतः