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कर दिया। इसमें जिनचन्द्र के कई यति लोग भी खिलाफ थे पर उन बिचारों की सुने कौन?
जिनचन्द्र क्रमशः विहार कर आषाढ़ शुक्ल १३ को अहमदाबाद पहुंचे। जिसको सुनकर श्रीसंघ ने दुःख के साथ बड़ा ही अफसोस किया कि यति लोग चातुर्मास एवं बरसात के दिनों में इस प्रकार भ्रमण क्यों करते हैं? वहा के श्रीसंघ ने जिनचन्द्र को बहुत समझाया पर वह अभिमान का पुतला जिनचन्द्र सुने किसकी ? अहमदाबाद के श्रीसंघ की सख्त मनाई होने पर भी जिनचन्द्र ने अपने यतियों के साथ वहाँ से विहार कर दिया, अब तो जिनचन्द्र जहाँ जाता वहाँ तमाशगिरी लोग देखने के लिये एकत्र हो जाते, क्योंकि इस प्रकार जैन यतियों का चातुर्मास में विहार करना पहले पहल ही था। इसके पूर्व पतित से पतित किसी यति ने भी चातुर्मास में विहार नहीं किया था। जिनचन्द्र महेसाने आया। वहाँ के श्रीसंघ ने भी इस प्रकार के विहार का सख्त विरोध किया। वहाँ से चलकर पालनपुर आया। वही हाल हुआ जो महेसाना में हुआ था।
यह सादी और सरल बात साधारण बुद्धिवालों की समझ में आ सकती है कि जैन यति के वेष में इस प्रकार चातुर्मास एवं बरसात के दिनों में फिरता फिरे
और उसका श्रीसंघ सख्त विरोध करे इस में शंका ही किस बात की ? पर जब मनुष्य महत्त्वाकांक्षी हो अभिमान के हस्ती पर सवार हो जाता है तब वह अंधा बन जाता है। फिर भला बुरा उसको नहीं सूझता है, इसके लिये जमाली और गौसाला का उदाहरण मौजूद है। यही हाल जिनचन्द्र का हुआ।
आगे चलकर जिनचन्द्र सिरोही आया। वहां के संघ ने भी इस विहार का सख्त विरोध किया। इधर पर्युषणों के दिन भी आ गये थे। जिनचंद्र के हृदय में बादशाह अकबर से मिलकर मान प्राप्त करने की बिजली सतेज हो रही थी, अतः उसका विचार पर्युषण भी विहार में ही करने का था। पर सिरोही संघ ने अपनी सत्ता का सख्त उपयोग किया, जिससे जिनचन्द्र को लाचार हो पर्युषण सिरोही में ही करना पड़ा। जैन साधु जहा सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करता है वहा ७० दिन ठहरना निश्चित हो जाता है। पर जिनचन्द्र साधु था ही कहाँ !? वह शास्त्राज्ञा की परवाह ही क्यों करे। पर्युषण समाप्त होते ही वहाँ से जावलीपुर की ओर विहार कर दिया। सिरोही श्रीसंघ ने समझ लिया कि यह जैन यति क्या जैन धर्म को कलंकित करने वाला जैनधर्म का कट्टर दुश्मन है कि इस प्रकार चातुर्मास में विहार कर जैन धर्म की निन्दा करवा रहा है?
इधर तो जिनचन्द्र जावलीपुर पहुँचता है उधर आगरे में समाचार मिला कि