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जिनचन्द्र को चातुर्मास में विहार करने से रोक दिया।
नाहटा वरादरो ने 'युगप्रधानजिनचन्द्रसूरि' नामक थोथे पोथे में जिनचन्द्रसूरि के चातुर्मास के विहार की प्रशंसा कर कल्पना के पुल बाँध दिये हैं। पर यह बात किसी सभ्य मनुष्य के हृदयगम्य तो होनी चाहिये कि जैनयति के वेष में इस प्रकार चातुर्मास एवं बरसती बरसात में विहार करना। चातुर्मासिक प्रतिक्रमण किसी ग्राम में तो पर्युषण किसी ग्राम में करे जिसकी श्रीसंघ प्रशंसा करे यह सिवाय पक्षपातियों के कौन मान सकता है?
यदि कोई अन्य गच्छवाला इस प्रकार चातुर्मास में विहार कर देता तो खरतर उसकी पेट कूट-कूट कर निन्दा करते पर जिनचन्द्रसूरि तो थे खरतर । उनकी निन्दा खरतर कैसे कर सकते हैं ? अतः जिनचन्द्रसूरि का कलंक धो डालने को उन्होंने झूठी झूठी प्रशंसा की हैं।
हाँ कई जैनेतर एवं तमाशगीर लोग एक नई बात देखने के लिये एकत्र हो गये हों कि छकाया के रक्षक और मुंह से दया दया की पुकार करने वाले जैनयति चातुर्मास में अनंत स्थावर एवं असंख्य त्रस जीवों का मर्दन करते हुये किस प्रकार भ्रमण करते है? तथा शायद नाहटाजी अभी नये लेखक प्रगट हुए हैं। उन्होंने अपनी लेख पद्धति एवं शब्दकोष का परिचय करवाया हो तो बुरा भी नहीं है।
शायद कोई दृष्टिरागी व्यक्ति कह दे कि जिनचन्द्रसूरि को बादशाह ने आमन्त्रण भेज कर बुलाया था और वह बादशाह को प्रतिबोध देने को चातुर्मास में विहार कर आगरे जाते थे। इस बात की श्रीसंघ को खुशी थी, अतः उन्होंने जिनचन्द्रसूरि के चातुर्मास के विहार का अच्छा स्वागत किया था।
अगर जिनचन्द्र में इतनी योग्यता होती तो बादशाह कहीं भागकर जाने वाला नहीं था। वे चातुर्मास के बाद विहार कर आगरे जा सकते थे। दूसरे जैन शास्त्रों में 'तन्नाणं तारियाणं' कहा है न कि 'डूबाणं तारियाणं' अर्थात् आप तरने वाला ही दूसरों को तार सकता है और उनका ही दूसरो पर प्रभाव पड़ता है और जो आप डूबने वाले हैं उनका न तो दूसरों पर प्रभाव ही पड़ता है और न वे दूसरों को तार ही सकते हैं। सच कहा जाय तो साधु था ही कौन? जिनचन्द्र तो एक महत्वाकांक्षी यति था। उसकी लगन तो यह थी कि तपागच्छ वालों ने बादशाह की सभा में जाकर यश एवं नाम कमाया तो मैं पीछे क्यों रहूँ? पर कहाँ तपागच्छ वालों की योग्यता और कहा जिनचन्द्र ?
खैर । जिनचन्द्रसूरि जावलीपुर से विहार कर क्रमशः आगरे की ओर जा