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प्रश्न - खरतरों ने यह भी तो लिखा है कि ओसियां में जिनदत्तसूरि ने जाकर सवा लक्ष श्रावकों को प्रतिबोध दिया था ?
भूमि पर सोने वाले और झूठ बोलने वालों को संकोच ही किस बात का है? जिनदत्त का समय तो विक्रम की बारहवी तेरहवी शताब्दी का है। तब ओसियों में श्रावक बनाने का समय विक्रम पूर्व ४०० वर्षों का है और इस बात के लिये पुष्कल प्रमाण भी मौजूद है। फिर लिखने वालों को थोडी शरम भी नहीं आई कि हम बिलकुल झूठ बात कैसे लिखते हैं ? इस प्रकार मिथ्या लेख लिखने से दुनिया में हमारी प्रशंसा होगी या निन्दा होगी? क्या सभ्य समाज इस प्रकार के मिथ्या लेख को सत्य मान लेगा या लेख लिखने वाले को अनभिज्ञ बेवकूफ कहेगा?
यदि यह कहा जाय कि जिनदत्त ने ओसियों में जाकर नये ओसवाल नहीं बनाये। पर पहले से बने हुये ओसवालों को महावीर के छ: कल्याणक मनाकर तथा स्त्रियों को जिन पूजा छुड़ा कर अपना श्रावक बनाया होगा। और यही बात खरतरों की पट्टावली में लिखी है कि सवा लक्ष श्रावकों को प्रतिबोध दिया।
यह भी मिथ्या है। कारण, अव्वल तो विक्रम की बारहवीं तेरहवीं शताब्दी में सवा लक्ष श्रावक ओसियों में थे ही नहीं। दूसरे इस प्रकार उत्सूत्र प्ररुपकों का जहां तहां संघ से बहिष्कार हो रहा था। उस समय ओसियों के श्रावक उन मिथ्या प्ररुपणा करनेवालों का कहना मानते यह बिलकुल असम्भव बात है। यह तो जिनदत्त के आधुनिक भक्तों ने जिनदत्त पर से उत्सूत्र भाषण का कलंक धोने के लिये कल्पना का कलेवर तैयार किया है। पर इस प्रकार मिथ्या लेखों से तो वह कलंक छिपता नहीं पर और भी बढ़ जाता है और उनके प्रतिकार के लेखों से चिरस्थायी भी बन जाता है। फिर भी उन अक्ल के दुश्मनों को इतना भी भान नहीं था कि बिचारे जिनवल्लभ जिनदत्त की काली करतूतें पुराणे पोथों में पुराणी हो गई थी। उनको प्रेरणा द्वारा जीर्णोद्धार करवा कर जनता में क्यों फैलाई जाती हैं ? अतः इस लेख का सार यही है कि जिनदत्त ने किसी एक मनुष्य को भी नया जैन नहीं बनाया है और न उसमें ऐसी योग्यता ही थी कि वह नये जैन बनावे । पर जो उसने अपने भक्त बनाये है वे सब बने हुये जैन थे। जिनदत्त ने उनको दृष्टिरागी बनाकर ही अपने पक्ष में लिया था इतना ही क्यों पर जिनदत्त के भक्तों ने तो इस प्रकार कल्पित ढांचा रच कर बिचारे भद्रिक ओसवालों को धोखा भी १. ओसियानगरे ओसवंशीय लक्षश्रावका प्रतिबोधिकाः ।
'ख. प., पृष्ठ १०'