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तथा जिनदत्त को ही निषेध करना पड़ा। जब कि जैनधर्म में ऋतुमती स्त्रियाँ अपने घर के काम तक भी नहीं करती हैं तो क्या वह जैन मंदिर में जाकर भगवान की पूजा कर सकती थी और वह भी पाटण जैसे नगर में जहाँ अनेक आचार्य और सैकड़ों साधु हमेशा रहते थे । और गृहस्थ स्त्रियाँ तो क्या पर ऋतुमति साध्वीयों तक के लिये भी मँदिर में दर्शन करने को जाना बड़ी भारी अशातना समझी जाती थी इस हालत में गृहस्थ स्त्रियाँ ऋतु अवस्था में मंदिर में कैसे जा सकती ? जब ऋतु अवस्था में साध्वीयां एवं श्राविकाएँ भी मन्दिर में नहीं जाती हैं तो पूजा की तो बात ही कहाँ रही ? खैर जिनदत्त ने इस बात का केवल जबानी जमा खर्च ही नहीं रखा था, पर अपने बनाये कुलक नामक ग्रंथ में लिख भी दिया था कि स्त्रियां जिनप्रतिमा का स्पर्श तक भी नहीं कर सकती हैं।
जिनदत्तसूरि एवं खरतरों को शायद यह भ्रांति हो कि भाव जिन को स्त्रियां छू नहीं सकतीं इस लिये स्थापना जिनको भी नहीं छू सके। पर इन शासन के दुश्मनों को इतना तो सोचना था कि जैसे मूर्ति तीर्थंकरों का स्थापना निक्षप है वैसे पुस्तक में लिखा हुआ जिन नाम भी तो स्थापना निक्षेप है । फिर तो जिस पुस्तक में तीर्थंकरों एवं साधुओं का नाम है उस पुस्तक को भी स्त्रियों को नहीं छूना चाहिये और इसी प्रकार जिस पुस्तक में साध्वीयों एवं श्राविकाओं का नाम हो उस पुस्तक को पुरुषों को एवं साधुओं को भी स्पर्श नहीं करना चाहिये । वाह रे ! खर और तर, जनता ने जो नाम दिया है वह यथार्थ ही दिया है।
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इन अर्द्ध ढूंढको में इतनी भी अक्ल नहीं थी, खैर तीर्थंकर पुरुष होने से
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संभवइ अकालेऽविन्दु कुसुमं महिलाण तेण देवाणां । पूआई अहिगारो, न ओघओ सुत्त निद्दिट्ठो ॥ १॥ न छिविंति तहा देहं ओसरणे, भावजिणवरिंदाणं । तह तप्पडिमंपि सया पूअंति न सड्ढनारिओ ॥ २ ॥
जिनदत्तसूरि कृत कुलक, जिस पर जिनकुशलसूरि ने विस्तार से टीका रची है 1 प्र. पा., पृ. ३७१
अह अण्णया कयाई, रूहिरं दट्ठूण जिणहरे रूठ्ठो । इत्थीणं पच्छितं देइ, जिणपूअपडिसेहं ॥ ३५ ॥ संघुत्ति भयपलाणो, पट्टणओ उट्टवाहणारूढ़ो । पत्तो जावलीपुर, जणकहणे भणाइ विज्जाए ॥ ३६ ॥
प्रवचन परीक्षा ग्रन्थ, पृष्ठ २६७
इन प्रमाणों से स्पष्ट पाया जाता है कि जिनदत्त ने स्त्री समाज को जिन पूजा निषेध करके शासन का आधा अंग काट डाला है, अतः जिनदत्त एवं खरतरों को अर्ध ढूंढक ही कहना चाहिये ।