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जाता है। जब लोगों को सच्ची बातों का ज्ञान हुआ। तब वे दादाजी और उनकी पादुकाओं की ओर धृणा की दृष्टि से देखने लगे। और अनजानपन में उन मिथ्यात्वी के पास जाने का पश्चाताप कर उसका प्रायश्चित लिया है। भला देखिये अब उन दादावाड़ियों में कौन जाता है? वे भूत पिशाच के स्थानों की भाति शून्य पड़ी हवा खा रही हैं। बिचारे खरतर धन पुत्रादि की आशा से त्रिलोक्य पूजनीय परमेश्वर की पूजा छोड़ दादाजी के यहाँ जाकर दो दो चार चार घंटे तक प्रार्थना करते थे पर आखिर दादाजी की ऐसी क्रूर दृष्टि हुई कि वे सफाचट बन गये तब जाकर उनकी आँखें खुली कि व्यर्थ ही समय एवं द्रव्य बरबाद किया। जो होता है वह सब कर्मानुसार ही होता है। अतः छोड़ो दादाजी को और करो उद्योग कि पेट भर के अन्न तो मिले। अगर समय मिले तो आत्म कल्याणार्थ परमेश्वर की पूजा-उपासना ही करनी चाहिये इत्यादि। समझ गये न कल्पित ढांचे का यह हाल होता है।
१३. कई लोग कहते हैं कि जिनदत्तसूरि ने १,२५,००० नये जैन अर्थात्, नये ओसवाल बनाये। क्या यह चमत्कार का काम नहीं है? यदि दादाजी इतने चमत्कारी नहीं होते तो सवा लाख नये ओसवाल कब बना सकते?
नये जैन बनाने की न तो जिनदत्त में योग्यता थी और न उनको नया जैन बनाने के लिए समय ही मिलता था। कारण, उस समय जिनदत्त पर अनेक आफतें आ पड़ी थी। वह बिचारा संघ से तिरस्कृत हुआ इधर-उधर भटकता फिरता था। कभी कभी तो उनको भय के मारे ऊट सवारी से रात्रि में पलायन करना पड़ा था। इस हालत में वह बिचारा जिनदत्त नये जैन बनाने को कब बैठा था? और वह खुद भी इस प्रकार भटकता फिरता था तो उसके कहने से कौन नया जैन बनने को तैयार था?
दर असल बात तो यह बनी थी कि जिनवल्लभ का भगवान महावीर का गर्भापहार नाम छट्ठा कल्याणक की उत्सूत्र प्ररुपणा करने से संघ ने उसका बहिष्कार कर दिया था। बाद उस उत्सूत्र वादी के पट्ट पर जिनदत्त आरुढ़ हुआ। उस पर छट्ठा कल्याणक की आफत तो थी ही फिर पाटण में स्त्री जिन पूजा निषेध करने से दूसरी आफत आ पड़ी। जिससे जहां वह जाता वहां ही उसका तिरस्कार होता था। अतः उसने अपने जीवन के दिन इधर उधर भटकने में ही व्यतीत किये। उस समय जैन समाज की संख्या करीबन बारह करोड़ की थी। जिनदत्त ने अपने मत को बढ़ाने के लिए किसी को मंत्र किसी को यंत्र बताया किसी की दवाई की और किसी को और प्रयोग बतला कर शायद सवा लक्ष भद्रिकों को सत्यधर्म से