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थीं। यदि दादाजी भक्तों की हुंडियां स्विकारते तो खरतर भक्तों के इतने दिवाले क्यों निकले हैं ? उनकी इंडिया दादाजी स्विकारना क्यों भूल गये? शायद उन लोगों ने दादाजी को प्रसाद वगैरह नहीं चढ़ाया होगा। फिर भी उनकी गलती पर दादाजी को तो नहीं भूलना था कि दादाजी के विश्वास पर की हुई हुंडिया न स्विकारने से उनको दिवाला फूंक देना पड़ा। वाह रे खरतरों तुम तो सच्चे खरतर ही हो।
८. कई खरतर कहते हैं कि दादाजी ने अमावस की पूर्णिमा करके बतला दी, अतः दादाजी ऐसे चमत्कारी थे। अव्वल तो यह बिना सिर पैर की उड़ती हुई गप्प है। दादाजी के जीवन में इस बात की गंध तक भी नहीं मिलती है। फिर भी कोई व्यक्ति ऐसा करके बतला दे तो इसमें चमत्कार की कोई बात भी नहीं है। कारण, यह काम तो इनद्रजालियों का है, जैन शास्त्रों में तो ऐसा कर्म करने पर साधुओं को दंडित बतलाया है और साधु आचार से भ्रष्ट कहा है। यदि दादाजी ने ऐसा कर्म किया है तो वे इस पंक्ति से अलग नहीं रह सकते हैं। खरतर बिचारे दादाजी की मृत आत्मा को दंडित एवं भ्रष्टाचारी बनाने की कोशिश करते है अतः यह तो उनकी भक्ति का ही परिचय है।
९. कई खरतर यह भी कहते हैं कि जिनदत्तसूरि के मकान पर ब्राह्मणों ने एक मृत गाय लाकर डाल दी थी। तब जिनदत्तसूरि ने उस गाय को ब्राह्मणों के शिवालय में डाल दी इत्यादि।
खरतरों को चोरी करना, पाठ चुराना, पाठ को बदल देने का तो भय है ही नहीं। जब कि वे सूत्रों का पाठ बदलने में भगवान का भी डर नहीं रखते तो दूसरों के लिये तो वे भय रखते ही क्यों ? यह गाय वाली घटना वायट गच्छीय जिनदत्तसूरि के शिष्य जीवदेवसूरि के साथ घटीत हुई थी। जिसका उल्लेख प्रभावक-चरित्र में आचार्य प्रभाचन्द्रसूरि ने किया है। पर खरतरों के किसी भी प्राचीन ग्रन्थ एवं जिनदत्त के जीवन में इस बात की गन्ध तक भी नहीं है। खरतर भक्त तो किसी जैनाचार्य की चमत्कारी घटना देखी बस अपने आचार्यों के साथ जोड़ देते हैं। पर इससे दिवालिया कभी साहूकार नहीं बन सकता है पर वह तो अपने शेष विश्वास का दिवाला निकाल देता है।
१०. कई कहते हैं कि दादाजी ने पाटण का अन्यगच्छीय अंबड श्रावक को श्राप दिया जिससे वह निर्धन हो गया। दादाजी से और बन ही क्या सकता था? १. देखो प्रभाविक चरित्र जीवदेवसूरि प्रबन्ध श्लोक से।