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(६) यदि "महाजनवंश मुक्तावली" पुस्तक के कथन को खरतर लोग सत्य मानते हों तो जिनदत्तसूरि ने कई स्थान पर गृहस्थों के करने योग्य कार्य किये हैं। क्या जैन शासन में ऐसे व्यक्तियों को युगप्रधान माना जा सकता है?
(७) अंचलगच्छीय आचार्य धर्मघोषसूरि ने अपने शतपदी ग्रन्थ के १४९ पृष्ठ पर जिनदत्तसूरि की नवीन आचरणा के बारे में पच्चीस बातें विस्तार से लिखी हैं। पर मैं उनमें से कतिपय बातें पाठकों की जानकारी के लिए यहां उद्धृत कर देता हुं। वे लिखते हैं कि जिनदत्तसूरि :
१. श्राविकाने पूजा नो निषेध कर्यो । २. लवण (निमक) जल, अग्नि में नोखवू ठेराव्यो।
३. देरासर में जुवान वेश्या नहीं नचावी, किन्तु जे नानी के वृद्ध वेश्या होय ते नचाववी एवी देशना करी।
४. गोत्रदेवी तथा क्षेत्रपालादिकनी पूजा थी सम्यक्त्व भागे नहीं एम ठेराव्युं । ५. अमे ज युगप्रधान छीए एम मनावा मांड्यु।
६. वली एवी देशना करवा मांडी के एक साधारण खातानु बाजोठ (पेटी) राखवू, तेने आचार्य नो हुकम लई उघाडवू । तेमांना पैसामांथी आचार्यादिकना अग्निसंस्कार स्थाने स्तूपादिक कराववी तथा त्यां यात्रा अने उजणीओ करवी।
७. आचार्योंनी मूर्तियों कराववी।
८. चक्रेश्वरीनी स्तुतिमां जिनदत्तसूरिए कयुं छे के विधिमार्गना शत्रुओना गला कापी नाखनार चक्रेश्वरी मोक्षार्थी जनना विघ्न निवारो।
९. श्रावक ने तीन वार सामायिक उच्चराववानी प्ररुपणा करवा मांडी।
१०. अजमेरमां पार्श्वनाथना देरामां तथा पोसहशालामां सरस्वतीनी प्रतिमा थपावी। ए ज देहरामां जेमने मांस पण चढ़े छे एवी शीतला वगेरा देवियों थपावी।
११. ऐरावण समारुढ़ इत्यादि बली उड़ावी दिक्पालोंनी पूजा करवाना श्लोको तथा "सद्वेद्यां भद्रपीठे" इत्यादि काव्यों चैत्यवासी वादिवैताल शान्तिसूरिना करेल होवाथी सुविहितोए निषेध कर्या छतां जिनदत्त सूरिए चलाव्या।
इनके अलावा और भी कई बातों को रद्दोबदल कर स्वच्छन्दता पूर्वक आचरणा प्रचलित कर डाली। क्या ऐसे उत्सूत्र भाषक भी युगप्रधान हो सकते हैं ?
यदि खरतरों के नसीब में ऐसे उत्सूत्र प्ररुपक जो श्रीसंघ से संघ बाहर किया हुआ व्यक्ति युगप्रधान होना लिखा हो तो उस भावी को मिटा भी कौन सकता है? शायद असंयति पूजा नामक अच्छरा (आश्चर्य) का ही तो यह प्रभाव नहीं है कि इस कलिकाल में मूंढ लोग ऐसे पतित की भी पूजा करते हैं।