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देवभद्र भी कोई कदागृह एवं पक्षपात का बादशाह ही होगा कि उत्सूत्र प्ररुपक वल्लभ को आचार्य पद देकर अभयदेवसूरि का पट्टधर बनाया। भला कहां तो उन महाप्रभाविक अभयदेवसूरि की योग्यता कि जिन्होंने चैत्यवासियों के नायक श्रीद्रोणाचार्य का सम्मान कर अपनी टीका का संशोधन करवाया और कहां जिनवल्लभ की उच्छंखलता कि उन चैत्यवासिओं के बनाये जिनमन्दिर और त्रिलोक्य पूज्य तीर्थंकरों की प्रतिमा को मांस शकल की उपमा दे डाली, अतः इसको गज के स्थान पर खर को बैठाना कहा जाय तो भी अतिशयोक्ति नहीं कही जा सकती है।
अभयदेवसूरि के साथ जिनवल्लभ का कोई सम्बन्ध नहीं था, क्योंकि अभयदेवसूरि थे चन्द्रकुल के आचार्य तब वल्लभ था कुर्चपुरा गच्छ का साधु और उसने अपना 'विधिमार्ग' नाम का अलग मत स्थापन किया था जिसमें अभयदेवसूरि की मान्यता से कई बातें न्यूनाधिक करके उत्सूत्र की प्ररुपणा की थी, जिससे सकल श्रीसंघ ने उसको संघ बाहर कर दिया था। अतः अभयदेवसूरि की परम्परा बिलकुल ही अलग थी देखियेअभयदेवसूरि | कुर्चपुरागच्छीय साधु जिनवल्लभ ने अपना
विधिमार्ग नाम का मत निकाला, जिसकी दो वर्धमानसूरि | शाखा उसी समय हो गई थीं।
जिनवल्लभ पद्मप्रभसूरि
जिनदत्तसूरि जिनशेखरसूरि धर्मघोषसूरि । (खरतर-शाखा) (रुद्रपाली-शाखा)
इन सब बातों से यह निश्चय हो सकता है कि अभयदेवसूरि के साथ जिनवल्लभ का कोई भी सम्बन्ध नहीं था। जिनवल्लभ के न तो थे कोई गुरु और न था कोई शिष्य । यह एक समुत्सम मत स्थापक जैनसमाज में उत्सूत्र की प्ररुपणा कर राग-द्वेष-क्लेष-कदागृह फैलाने वाला जैनसमाज का कट्टर दुश्मन पैदा हुआ था, जिसके बोये हुए छट्ठा गर्भापहार कल्याणक रुप क्लेश के बीज के फल आज भी जैनसमाज अनुभव कर रहा है।
जैसे ढूंढिये लोंकाशाह को और तेरहपन्थी भीखमस्वामी को उद्धारक मानते हैं वैसे ही खरतर जिनवल्लभ को मानते हैं। इन तीनों में उत्सूत्र प्ररुपणा की अपेक्षा