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था पर अभयदेवसूरि ने न तो उनको दीक्षा ही दी थी न अपना शिष्य ही बनाया।
४. जब कई कहते हैं कि अभयदेवसूरि अपनी मौजूदगी में अपने पट्टधर वर्धमानसूरि को आचार्य बना गये थे अतः अभयदेवसूरि के साथ जिनवल्लभ का कोई भी सम्बन्ध नहीं था।
५. कई कहते हैं कि जिनवल्लभ आचार्य होने के बाद केवल ६ मास ही जीवित रहे। अर्थात् वृद्धावस्था में सूरि बन मनके मनोरथ सिद्ध कर लिये होंगे।
कई खरतर यह भी कहते हैं कि अभयदेवसूरि अपनी अंतिम अवस्था में प्रश्नचंदसूरि को कह गये थे कि मेरे बाद वल्लभ को सूरि पद देना
इससे खरतरों का यह तो इरादा नहीं है कि अभयदेवसूरि पर मायाचारी एवं समुदाय में फूट डालने का आक्षेप डाला जाय? क्योंकि अभयदेवसूरि ने अपनी मौजूदगी में अपने पट्टधर वर्धमानसूरि को स्थापन कर दिया था। फिर उन्होंने प्रश्नचंद्रसूरि को ऐसा क्यों कहा होगा कि मेरे बाद वल्लभ को आचार्य बना देना? यदि कहा भी हो तो प्रश्नचन्द्रसूरि ने क्या वल्लभ को योग्य नहीं समझा था कि वे अपनी जिन्दगी में वल्लभ को सूरि नहीं बना गये, यदि यह कहा जाय कि प्रश्नचन्द्र का भी अल्पायुष्य था और वे देवभद्र आचार्य को कह गये थे फिर देवभद्र ने ३२ वर्ष क्यों निकाल दिये? क्या ३२ वर्ष में वल्लभ को आचार्यपद देने योग्य कोई शुभ मुहूर्त ही नहीं मिला था और अभयदेवसूरि के स्वर्गवास के बाद ३२ वर्ष तक जिनवल्लभ अकेला फिरता रहा और वि. सं. ११६४ आश्विन कृष्णा त्रयोदशी के दिन चित्तौड़ में महावीर का गर्भापहार नामक छट्ठा कल्याणक की उत्सूत्र प्ररुपणा करने पर सकल श्रीसंघ से जिनवल्लभ का बहिष्कार करने के बाद जिनवल्लभ को देवभद्र ने सूरि बनाया इसका क्या कारण था?
गणधरसार्द्धशतक में लिखा है कि जिनवल्लभ के चैत्यवासी होने से उनको पदवी देने में गच्छ वाले सम्मत नहीं हुये यही बात प्रवचन परीक्षा में कही है कि जिनवल्लभ ने न तो किसी सुविहित के पास दीक्षा ली न योगोद्वाहन किया। यही कारण है कि जिनवल्लभ को पदवी देने में संघ वालों ने विरोध किया। १. जिनवल्लभस्तावत् क्रीतकृतोऽपि चैत्यवास्यपि प्रव्रज्योपस्थानोपधानशून्यः, न ही जिनवल्लभेन
कस्यापि संविग्नस्य पार्श्वे प्रव्रज्या गृहिता, तदभावाच्च न केनाप्युस्थापितः उपस्थापनाऽभावान्नोमपधानमपि आवश्यकादि श्रुताराधनतपोविशेषयोगानुष्ठानाद्यपि न जातम्, एतैः शून्यो रहितः सिद्धान्तपारगामी संविग्न श्रीअभयदेवसूरिपाइँ सम्पन्नः तथाभूतोऽपि रहकर्णजाप परम्परया सूरिरपिसोऽपि श्रीअभयदेवसूरिपट्टे श्रीवर्धमानाचार्य विद्यमानेऽपि तदीय समय येनानभ्युपगतोऽपि, सङघेन बहिष्कृतोपि एकाकी भ्रमन्नपि श्रीअभयदेवसूरि पट्टधर इत्यादि ॥
प्र. प., पृष्ठ २६१