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अतः इन नामधारी सुविहित एवं सुधारकों ने शासन के संगठन बल को तोड़ तोड़ के अलग अलग वाड़बन्दी बनाई थी। चलो यह तो हुई वर्धमानसूरि की बात आगे कुछ और बातें सुनाइये ।
जिनेश्वरसरि की बातें। जिनेश्वरसूरि के विषय में खरतरों की एक मान्यता नहीं है पर भिन्न भिन्न मान्यता है और जिन खरतर लोगों ने जिनेश्वरसरि के साथ खरतर बिरुद की कल्पना घड़ निकाली है वह खास खरतरों के लेखों से ही मिथ्या साबित होती है जिसके कई उदाहरण यहाँ दर्ज कर देता हूँ।
१. खरतरों की एक पट्टावली बताती है कि वर्धमानसूरि ने आबू के मंदिरों की प्रतिष्ठा (वि. सं. १०८८ में) करवाने के बाद जिनेश्वर व बुद्धिसागर नामके दो ब्राह्मणों को दीक्षा दी थी।
२. एक खरतर पट्टावली बताती है कि वर्धमानसूरि और जिनेश्वरसूरि पाटण गये। वहां वर्धमानसूरि का देहान्त हो गया बाद जिनेश्वरसूरि का शास्त्रार्थ हुआ।
३. कई खरतर लोग कहते हैं कि वि. सं. १०८० में पाटण के राजा दुर्लभ की राजसभा में जिनेश्वरसूरि और चैत्यवासियों के आपस में शास्त्रार्थ हुआ, जिसमें जिनेश्वरसूरि खरा रहने से राजा दुर्लभ ने जिनेश्वरसूरि को खरतर बिरुद दिया और चैत्यवासी हार गये। अतः उनको कँवला कहा इत्यादि
खरतरों ने यह एक कल्पित ढांचा रच कर बिचारे भद्रिक लोगों को बड़ा भारी धोका दिया है। पूर्वोक्त बात न तो किसी प्रमाणिक प्रमाणों द्वारा साबित होती है और न खरतरों के पास इस बात का कोई प्रमाण ही है क्योंकि खास तौर पर यह बात कल्पना मात्र है। और इस विषय के अर्वाचीन खरतरों ने जितने लेख लिखे हैं वह सब मनःकल्पित ही लिखे हैं। वे भी एक दूसरे से खास विरुद्ध अर्थात् वे आपस में एक दूसरे को झूठा साबित कर रहे हैं। केवल नमूने के तौर पर यहाँ कतीपय उदाहरण बतला दिये जाते हैं, जैसे कि :
१. कई खरतर कहते हैं वर्धमानसूरि जिनेश्वरसूरि आदि १८ साधु पाटण गये थे। तब कई कहते कि नहीं पाटण तो जिनेश्वरसूरि बुद्धिसागरसूरि दो साधु ही गये थे। तब तीसरा कहता है कि नहीं, जिनेश्वर बुद्धिसागर सपरिवार पाटण गये थे।
२. कई खरतर कहते हैं कि शास्त्रार्थ चैत्यवासी सूराचार्य के साथ हुआ था, तब कई कहते हैं कि चौरासी मठपतियों के साथ, तब कई कहते हैं कि कुर्चपुरागच्छवालों के साथ। तब कई कहते हैं कि उपकेशगच्छवालों के साथ शास्त्रार्थ हुआ था।