________________
१४३
wwwwwwwwwwwwwwwww
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
अगर आबू के मन्दिरों की प्रतिष्ठा वर्धमानसूरि ने सं. १०८८ में करवाई है और यह बात प्रमाणिक मानी जाती हो तो यह निशंक है कि वर्धमानसूरि ने उद्योतनसूरि के पास न तो क्रिया उद्धार किया था, न उद्योतनसूरि ने उनको सूरिपद ही दिया था। शायद वर्धमानसूरि चैत्यवास छोड़ कर स्वयं क्रिया उद्धारक बन गये हों और प्रसिद्धाचार्य उद्योतनसूरि के पट्टधर कहलाये हों और बाद में जिनेश्वर और बुद्धिसागर को दीक्षा दी हो तो यह बात संभव हो भी सकती है। कारण अभयदेवसूरि ने वर्धमानसूरि को किसी गच्छ के न लिखकर चन्द्रकुल के ही लिखा
हैं।
एक पट्टावली में यह भी लिखा मिलता है कि वर्धमानसूरि जिनेश्वर बुद्धिसागर के साथ पाटण गये, वहाँ वर्धमानसूरि' का स्वर्गवास हो गया था। यदि जिनेश्वरसूरि के शास्त्रार्थ का समय खरतर मतानुसार वि. सं. १०८० का माना जाये तो वि. सं. १०८० के पूर्व वर्धमानसूरि का स्वर्गवास समझना चाहिए, फिर सं. १०८८ में आबू मंदिर की प्रतिष्ठा किसी अन्य वर्धमानसूरि ने करवाई होगी। यदि उपरोक्त पट्टावली ठीक है तो जिनेश्वरसूरि का शास्त्रार्थ सं. १०८८ के बाद में हुआ होगा। क्योंकि वर्धमानसूरि सं. १०८८ में आबू के मन्दिरों की प्रतिष्ठा करवाकर ही पाटण गये होंगे पर उस समय राजा दुर्लभ किस गति में होगा? खरतरों को इसका पता लगाना चाहिये।
खरतरों ! ये पट्टावलियों की गड़बड़ आपके पूर्वजों की भूल है या कल्पित होने की साबूती दे रही है? जरा आंखे बंध कर विचारों।
खरतरगच्छ की एक पट्टावली सूरिपद के समय वर्धमान को वृद्धावस्था का बतलाती है, इससे भी कहा जा सकता है कि वर्धमानसूरि चैत्यवास छोड़ने के समय वृद्धावस्था में थे।
इससे भी यही सिद्ध होता है कि वर्धमानसूरि एक चैत्यवासी आचार्य थे और उन्होंने जिनेश्वर और बुद्धिसागर को दीक्षा देकर अपनी नयी शाखा चलाई थी,
१. आ. गुरु श्रीउद्योतनसूरिनी आज्ञा लई श्रीअझहारीनगर थकी विहार करीने श्रीगुजरइ
अणहलपाटणि आवि वर्धमानसूरि स्वर्गे गया, तेहना शिष्य श्रीजिनेश्वरसूरि पाटणी राज श्री दुर्लभनी सभाई कुर्चपुरागच्छीय चैत्यवासी साथे कांश्यपात्रनी चर्चा कीधी, त्यां श्रीदशवैकालिक नी चर्चा गाथा कहीने चैत्यवासीने जीत्या, तिवारइं राजश्रीदुर्लभ कहइ "ए आचार्य शस्त्रानसारे खरं बोल्या" ते थकी वि. सं. १०८० वर्षे श्रीजिनेश्वरसूरि खरतर बिरुद लीधी।
"सिद्धान्तमग्नसागर, पृष्ठ ९४"