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उल्टा अपने को चन्द्रकुल में होना ही लिखा है।
खरतर शब्द की उत्पत्ति जिनदत्तसूरि की खर-प्रकृति के कारण हुई थी, पर उस समय इस खर शब्द को वे लोग अपमानसूचक समझते थे कि खर-तर शब्द को किसी ने नहीं अपनाया। जिनपतिसूरि ने जिनवल्लभसूरि कृत 'संघ-पट्टक' पर विस्तार से टीका रची है, जिसमें जिनेश्वरसूरि के साथ बहुत विशेषण लिखे पर खरतर शब्द को तो उन्होंने भी स्थान नहीं दिया। भला जिनपतिसूरि के समय खरतर महत्त्व का बिरुद होता तो चैत्यवासियों की विजय में प्राप्त हुआ बिरुद चैत्यवासियों के खण्डनामक ग्रन्थ में न लिख जाय। यह कभी हो नहीं सकता। पर उस समय तो यह खरतर शब्द ही अपमान के रुप में समझा जाता था। वे अपने हाथों से इस शब्द को कैसे लिख सकते थे?
खरतरों ने जिनेश्वरसूरि के शास्त्रार्थ का समय पहले तो सं. १०२४ का लिखा कि जिस समय न तो जिनेश्वर का जन्म ही हुआ था और न दुर्लभ राजा ने संसार में अवतार ही लिया था। जब पिछले लोगों को यह समय गलत मालूम हुआ तब चउवीस का अर्थ बीस को चार गुणा करने से ८० किया अर्थात् सं. १०८० किया पर इसमें भी वे सफल नहीं हुये । कारण, दुर्लभ राजा का राज वि. सं. १०७८ में ही खतम हो चुका था। अतः कल्पित मत की यह एक कल्पना ही है और यही कारण है कि खरतरे जहां तहां विद्वद् समाज में हसी के पात्र बन रहे हैं।
जिनेश्वरसूरि का पाटण जाना और अपने लिये बने हुए मकान में चातुर्मास करना जिसको खर-तर वसतिमार्ग मत चलाना मानते हैं यह कथन तो प्राचीन हैं पर राजसभा में जाकर शास्त्रार्थ करना यह कल्पना सबसे पहले विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में जिनपतिसूरि ने ही की थी, इनके पूर्व किसी भी आचार्यों ने यह नहीं लिखा था कि जिनेश्वरसूरि का राजसभा में शास्त्रार्थ हुआ था, फिर भी उस समय जिनपतिसूरि को यह नहीं सूझा कि वे शास्त्रार्थ के साथ खर-तर बिरुद की भी कल्पना कर पाते, अतः उस समय की भूल ही आज खर-तरों के कल्पित मार्ग में रोड़ा अटका रही है पर अब क्या होता है? कहा है कि 'बूंद की गई हुई होद से नहीं आती है।' १. वर्षेऽब्धिपक्षाभ्रशशिप्रमाणे लेभेऽपि यैः खरतरो बिरुदयुग्मं ।
"खरतर पट्टावली, पृष्ठ ३" दससय चउवीसेहिं नगर पाटण अणहिल्लपुरि । हुओ बाद सुविहित चइवासीसु बहुपरि ॥
"खरतर पट्टावली, पृष्ठ ४४"