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तीसरी पट्टावली में ८३ शिष्य अन्यगच्छीय नहीं पर उद्योतनसरि के ही शिष्य
थे।
इसमें भी विशेषता यह है कि किसी पट्टावलीकारों ने यह नहीं लिखा है कि उद्योतनसूरि ने एक गच्छ की भी स्थापना की थी, केवल आधुनिक यतियों ने यह कल्पना कर डाली है कि उद्योतनसूरि ने ८४ गच्छों की स्थापना की थी पर इस बीसवीं शताब्दी में ऐसी मिथ्या कल्पना की क्या कीमत हो सकती है? खैर आगे चल कर और देखिये
प्रभाविक चरित्र-अभयदेवसूरि के प्रबन्ध में यह भी लिखा मिलता है कि वर्धमानसूरि ८४ चैत्यों के अधिपति थे। बाद में उन्होंने क्रिया उद्धार किया था। पर यह क्रिया उद्धार किसके पास एवं किस समय किया यह चरित्र एवं प्राचीन पट्टावलीकारों ने नहीं लिखा है। अतः वर्धमानसूरि ने उद्योतनसूरि के पास क्रिया उद्धार किया था या स्वयं?
खरतर पट्टावलियों में वर्धमानसूरि का सम्बन्ध उद्योतनसूरि से बतलाया है। पर इसमें सवाल यह होता है कि उद्योतनसूरि का समय तपागच्छ पट्टावली में वि. सं. ९९४ का बतलाया है। और उद्योतनसूरि के पद पर सर्वदेवसूरि हुये एवं सर्वदेवसूरि ने वि. सं. १०१० में रामशैन्यपुर' में श्रीचन्द्रप्रभ बिंब की प्रतिष्ठा करवाई तथा चंद्रावती के कुंकुण मंत्री को दीक्षा दी थी अतः उद्योतनसूरि का समय स. ९९४ का होना यथार्थ ही है।
परन्तु वर्धमानसूरि ने उद्योतनसूरि के पास क्रिया उद्धार कर सूरिपद प्राप्त किया और साथ में यह भी कहा जाता है कि वर्धमानसूरि ने वि. सं. १०८८ में आबू के मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई, यह कदापि सम्भव नहीं हो सकता है क्योंकि वर्धमानसूरि ८४ चैत्यों के अधिपति थे तो उनकी अधिक उम्र तो चैत्यवास में ही व्यतीत हुई होगी, फिर वे क्रिया उद्धार कर सूरिपद की योग्यता प्राप्त कर के ही सूरि बने होंगे और आबू मन्दिरों की प्रतिष्ठा करवाने के बाद भी कुछ अर्से तक जीवित रहे होंगे। अतः इन सबको शामिल करने से वर्धमानसूरि को करीब १०० वर्ष से भी अधिक सूरिपद पर रहना कहा जा सकता है। जो बिलकुल असम्भव सी बात है। १. स च गौतमवत् सुशिष्य लब्धिमान् । वि. दशाधिक दशशत (१०१०) वर्षे रामसैन्यपुरे
श्रीचन्द्रप्रभ प्रतिष्ठाकृत् चन्द्रावत्यां निर्मापितोत्तुंगप्रासादं कुंकुणमंत्रिणं स्वगिरा प्रतिबोध्य प्रावाजयत् ॥
तपागच्छ पट्टावलि सं., पृष्ठ ५